लघुकथा... कमरा


 बिद्या दास
सहायक प्राध्यापकहिंदी विभाग
कॉटन विश्वविद्यालय,गुवाहाटी

कमरा
आज हम एक नये किराये के मकान में शिफ्ट हुए हैं। यह कमरा पहले वाले कमरे से काफी अच्छा है। लंबा चौड़ा तीन रूम, काफी जगह है सामान भरने के लिए। कमरे की खासियत यह है कि मेरे वाले रूम में दो खिड़कियाँ है। मुझे खिड़कियों वाला कमरा काफी पसंद है। खिड़की के पास बैठकर हर एक छोटी बड़ी चीजों के बारे में सोचना, बाहर की दुनिया को देखना मुझे अच्छा लगता है। मेरे लिए खिड़की केवल खिड़की नहीं है बल्कि मेरे खुद के बनाये कल्पनालोक मे घुसने का मुखद्वार है। रात होते ही आसमान की सुंदरता बढ़ जाती है, उस सुंदरता को खिड़की के पास बैठकर निहारना, खुद से बाते करना, जीवन में घटी घटनाओं के बारे में सोचना, आगे भविष्य की सुंदर कल्पना करना, यह सब मुझे मेरे अकेलेपन में भी अकेले होने का अहसास नहीं होने देती हैं। मूल रूप से मुझे यह कमरा बेहद पसंद आया, मैंने फटाफट अपना बिस्तर खिड़की के पास लगा लिया।
              बालकनी में आकर मैंने देखा सामने चार मंजिलों का एक अपार्टमेंट् है जिसके पीछे का हिस्सा मेरे कमरे की ओर है। बायी तरफ और दो अपार्टमेंट्स में काम चल रहा है। लोग घरो के ऊपर घर बनाये जा रहे हैं। सोचती हूं कहाँ से आते है इतने लोग इन कमरों में रहने, क्या पता उनमें कुछ लोग हमारी तरह बद्किस्मत वाले हो या कोई अन्य मजबूरी भी हो सकती है। खैर, जो भी हो, मैंने देखा सामने वाले फ्लैट का पिछला हिस्सा मेरी बालकनी के बिल्कुल बराबर है। ग्राउंड फ्लोर में वह पार्किंग एरिया बनाया है। जिस दिन कमरा देखने आयी थी तब मैंने यह सब इतने ध्यान से नहीं देखा था, कमरा एक नजर में ही पसंद आ गया और मैंने हाँ कर दिया। बाद में मन में थोड़ी शंका जरूर हुई कहीं इतनी जल्दी हाँ कर देने से आगे चलकर कोई दिक्कत न हो पर अब मेरा मन खुश है, क्योंकि आसपास एक जीवंत माहौल सा बना हुआ है। भले ही उन सबसे बात न हो, जान पहचान न हो पर इतना जरूर है कि मेरे आसपास जीवधारी लोग होंगे, मैं अकेली तो नहीं रहुंगी। आसपड़ोस के कमरों से आती टी,वी की आवाज़े, कहीं फिल्मों गानों के सुर, गाड़ियों की पार्किंग, मजदूरों के काम करने की आवाज़े मेरे कमरे में चहलकदमी भर देंगी।
              सुबह आज जब मैं बालकनी में कपड़े डालने आयी तब देखा मेरे बराबर वाले फ्लैट में एक व्यक्तिउम्र कोई साठ-पैंसठ के बीच होगी, बाहर पोंछा लगा रहा है। मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा। जब भी कोई पुरूष अपनी पत्नी की घर  के कामों में मदद करता है मुझे देखकर खुशी होती है। मुझे लगता है जब कोई पुरूष घर के काम करता है इससे उसके पुरूषत्व में कमी नहीं आती बल्कि यह उसके पत्नी व स्त्री के प्रति प्रेम और सम्मान को दर्शाता है। साथ ही पति का स्तर भी पत्नी की नज़र में और ऊपर उठ जाता है। बचपन में मेरे पिताजी भी माँ के कामों में थोड़ी बहुत मदद कर दिया करते थे जैसे स्कूल जाते समय हमारे लिए टिफिन तैयार करना पर बड़े होने के बाद मैंने कभी उन्हे माँ की मदद करते नहीं देखा। पता नहीं यह उनकी पुरूष प्रधान मानसिकता थी या फिर शायद उन्हे अब शर्म आने लगी हो हमारे सामने औरतों वाले काम करने में।
दूसरे दिन मैंने उस व्यक्ति को पोंछा लगाते हुए फिर देखाअपनी पत्नी का मेखला चादर भी धूप लगने के लिए रस्सी पर टांग दिया। दो-एक बार उनकी और मेरी नज़रे भी मिली पर न वह मुस्कुराये न मैं। उन्हे हाथ में आईना लेकर मूंछे मुंडवाते हुए भी देखा है। उनकी पत्नी मुझे बहुत कम दिखती हैशायद घर में तीसरा कोई नहीं है। रहन-सहन व कपड़ों से वह लोग अवस्थासंपन्न लगे। शायद वह व्यक्ति सेवानिवृत होगाबेटी की शादी हो गई होगीबेटा भी अलग रहता होगा अब बस पति पत्नी एक दूसरे का सहारा बन कर अपने जीवन के दिन पार कर रहे हैं। पता नहीं मैं इतना क्यों और कैसे सोच लेती हूं?
              आज उनके कमरे से हंसी ठहाकों की आवाज़े आ रही हैलगता है मेहमान आये होंगे। चलो अच्छा है उनके नीरस जीवन में थोड़ा रस घुल जायेगा। ऐसा लगता है जैसे धीरे धीरे मैंनेउस परिवार से कोई अदृश्य सा संबंध गढ़ लिया है। इधर कुछ दिन से मैं अपने कामों थोड़ी व्यस्त हो गई। बाहर देखती भी हूं तो अपने में खोकरकुछ सोचती हुई सी। पर इतना जरूर था कि वह व्यक्ति मुझे कम दिखने लगे थे। दरवाज़ा भी प्राय बंद रहने लगा। मैंने सोचा कहीं घूमने गये होंगे। हम मनुष्य भी बड़े अजीब होते है बिना किसी को जाने-पहचानेबिना बात किये रोज़ नजर आने वाले व्यक्ति से एक अदृश्य संबंध बना लेते हैखासकर मेरे जैसे लोग जिसके पास व्यर्थ का समय काफी रहता है। खैरइस बीच माँ की बरसी आ गई थीमेरा गांव आना-जाना भी लगा रहा। मैं उस वृद्ध जोड़े को जैसे भूल गई।
पर आज लगभग बीस-पच्चीस दिन बाद वह दरवाज़ा खुलाकपड़े भी टंगे हैएक गमछा और बनियान। आजकल मैंने उस व्यक्ति को मूंछे मुंडवाते हुए भी नहीं देखा। पोंछा भी पहले की तरह रोज़ाना नहीं लगाते है। ऐसा लगा जैसे कुछ तो हुआ हैपर क्यामैंने ध्यान दिया कई दिनों से उस रस्सी पर मेखला-चादर नहीं टंगा है….

टिप्पणियाँ

  1. मर्मस्पर्शी वृत्तांत। स्वानुभूति की सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. बहुत सून्दर बिद्या। बहुत अच्छा लगा

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  3. अपने परिवेश में जो देखा गया, महसूस किया गया और भोगा गया, उसे विषय-वस्तु बनाकर विद्या ने अपनी कहानी के द्वारा पाठक को अनुभव सागर में डूबो ने में समर्थ हुए है| लिखती रहों 👍

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  5. सच मे बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी। आप बहुत अच्छा लिखती है । सच कहा आप ने घर मे मेखला चादर न दिखना हृदय को विह्वल कर देता है। आशा है असम क्षेत्र की कहानियां आप के माध्यम से आगे भी पढ़ने को मिलेंगी।

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  6. विद्या, पढ़कर बहुत अच्छा लगा.. आशा करतीं हूँ, आगे भी सुंदर कथाएँ पढ़ने को मिलेगी..

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