निबंध.....
वृद्ध
प्रतापनारायण मिश्र
इन महापुरुष का वर्णन करना सहज काम नहीं है। यद्यपि अब इनके किसी अंग में
कोई सामर्थ्य नहीं रही, अत: इनसे किसी प्रकार
की ऊपरी सहायता मिलना असंभव सा है, पर हमें उचित है कि इनसे
डरें, इनका सन्मान करें और इनके थोड़े से बचे खुचे जीवन को
गनीमत जानें। क्योंकि इन्होंने अपने बाल्यकाल में विद्या के नाते चाहे काला
अक्षर भी न सीखा हो, युवावस्था में चाहे एक पैसा भी न कमाया
हो, कभी किसी का कोई काम इनसे न निकला हो तथापि संसार का
ऊँच-नीच का इन्हें हमारी अपेक्षा बहुत अधिक अनुभव है। इसी से शास्त्र की आज्ञा
है कि वयोधिक शूद्र भी द्विजाति के लिए माननीय है। यदि हम में बुद्धि हो तो इन से
पुस्तकों का काम ले सकते हैं। बरंच पुस्तक पढ़ने में आँखों को तथा मुख को कष्ट
होता है, न समझ पड़ने पर दूसरों के पास दौड़ना अथवा अपनी
बुद्धि को दोड़ाना पड़ता है, पर इनसे केवल इतना कह देना बहुत
है कि हाँ बाबा फिर क्या हुआ? हाँ बाबा ऐसा हो तो कैसा हो?
बाबा साहब यह बात कैसी है? बस बाबा साहब अपने
जीवन भर का आंतरिक कोष खोल कर रख देंगे। इसके अतिरिक्त इनसे डरना इसलिए उचित है
कि हम क्या हैं हमारे पूज्य पिता चाचा ताऊ भी इनके आगे के छोकड़े थे। यदि यह
बिगड़ें तो किस की कलई नहीं खोल सकते? किस के नाम पर गट्टा
सी नहीं सुना सकते? इन्हें संकोच किस का है? बक्की के सिवा इन्हें कोई कलंक ही क्या लगा सकता है? जब यह आप ही चिता पर एक पाँव रक्खे बैठे हैं, कब्र
में पाँव लटकाए हुए हैं तो इनका कोई करी क्या सकता है? यदि
इनकी बातें कुबातें हम न सहें तो करैं क्या? यह तनिक सी बात
में कष्टित और कुंठित हो जाएँगे और असमर्थता के कारण सच्चे जी से शाप देंगे जो
वास्तव में बड़े तीक्ष्ण शस्त्र की भाँति अनष्टिकारक होगा। जबकि महात्मा गबीर
के कथनानुसार मरी खाल की हाय से लोहा तक भस्म हो जाता है तो इनकी पानी भरी खाल
(जो जीने मरने के बीच में है की हाय कैसा कुछ अमंगल नहीं कर सकती। इससे यही न उचित
है कि इनके सच्चे अशक्त अंत:करण का आशीर्वाद लाभ करने का उद्योग करैं। क्योंकि
समस्त धर्म ग्रंथों में इनका आदर करना लिखा है। सारे राजनियमों में इनके लिए
पूर्णतया दंड की विधि नहीं है। और सोच देखिए तो यह दयापात्र जीव हैं, क्योंकि सब प्रकार पौरुष ने रहित हैं। केवल जीभ नहीं मानती, इससे आयँ बायँ शायँ किया करते हैं या अपनी खटिया पर थूकते रहते हैं। इसके
सिवा किसी का बिगाड़ते ही क्या हैं। हाँ, इस दशा में भी
दुनिया के झंझट छोड़ के भगवान का भजन नहीं करते, वृथा चार
दिन के लिए झूठी हाय-हाय में कुढ़ते कुढ़ाते रहते हैं, यह
बुरा है। पर केवल इन्हीं के हक में, दूसरों को कुछ नहीं।
फिर क्यों इनकी निंदा की जाय? आज कल के बहुतेरे होनहार एवं
यत्नशील युवक कहा करते हैं कि बुड्ढे खबीसों के मारे कुछ नहीं होने पाता। यह अपनी
पुरानी सड़ी अकिल के कारण प्रत्येक देशहितकारक नव विधान में विध्न खड़ा कर देते
हैं। पर हमारी समझ में यह कहने वालों की भूल है। नहीं तो सब लोग एक से नहीं होते,
यदि हिकमत के साथ राह पर लाए जायँ तो बहुत से बुड्ढे ऐसे निकल
आवेंगे जिनसे अनेक युवकों को अनेक भाँति की मौखिक सहायता मिल सकती है। रहे वे
बुड्ढे जो सचमुच अपनी सत्यानाशी लकीर के फकीर अथवा अपने ही पापी पेट के गुलाम
हैं। वे प्रथम तौ हई कै जने? दूसरे अब वह समय नहीं रहा कि
उनके कुलक्षण किसी से छिपे हों, फिर उनका क्या डर? चार दिन के पाहुन, कछुआ मछली अथवा कीड़ों की परसी
हुई थाली, कुछ अमरौती खा के आए ही नहीं, कौआ के लड़के हई नहीं, बहुत जिएँगे दस वर्ष। इतने
दिन में मर पच के, दुनिया भर का पीकदान बन के, दस पाँच लोगों के तलवे चाट के, अपने स्वार्थ के लिए
पराए हित में बाधा करेंगे भी तो कितनी? सो भी जब देशभाइयों
का एक बड़ा समूह दूसरे ढर्रे पर जा रहा है तब आखिर तो थोड़े ही दिन में आज मरे कल
दूसरा दिन होना है। फिर उनके पीछे हम अपने सदुद्योगों में त्रुटि क्यों करें। जब
वह थोड़ी सी घातें की जिंदगी के लिए अपना बेढंगापन नहीं छोड़ते तो हम अपनी वृहज्जीवनाशा
में स्वधर्म क्यों छोड़े। हमारा यही कर्तव्य है कि उनकी सुश्रूषा करते रहें क्योंकि
भले हों वा बुरे पर हैं हमारे ही। अत: हमें चाहिए कि अदब के साथ उन्हें संसार के
अनित्यता अथच ईश्वर, धर्म देशोपकार एवं बंधु वात्सल्य की
सत्यता का निश्चय कराते रहैं। सदा समझाते रहैं कि हमारे तो तुम बाबा ही हो अगले
दिनों के ऋषियों की भाँति विद्याबृद्ध, ज्ञानबृद्ध, तपोबृद्ध हो तो भी बाबा हो और बाबा लोगों की भाँति 'अपन
पेट हाहू, मैं ना देहौं काहू' का
सिद्धांत रखते हो तो भी क्या, वृद्धता के नाते बाबा ही हो।
पर इतना स्मरण रक्खों कि अब जमाने की चाल वह नहीं रही जो तुम्हारी जवानी में
थी। इससे उत्तम यह है कि इस वाक्य को गाँठी बाँधों कि -'चाल
वह चल कि पसे मर्ग तुझे याद करें। काम वह कर कि जमाने में तेरा नाम रहे।' नहीं तो परलोक में बैकुंठ पाने पर भी उसे थूक-थूक के नर्क बना लोगे,
इस लोक का तो कहना ही क्या है। अभी थूक खखार देख के कुटुंब वाले
घृणा करते हैं, फिर कृमिविट भस्म की अवस्था में देख के
ग्रामवासी तथा प्रवासी घृणा करेंगे। और यदि वर्तमान करतूतें विदित हो गईं तो सारा
जगत सदा थुड़ू-थुड़ू करेगा। यों तो मनुष्य की देह ही क्या जिसके यावदवयव घृणामय
हैं, केवल बनाने वाले की पवित्रता के निहोरे श्रेष्ठ कहलाती
है, नोचेत् निरी खारिज खराब हाल खाल की खलीती है। तिस्पर भी
इस अवस्था में जब कि 'निवृता भोगेच्छा पुरुष बहुमाना
बिगलिता: समाना: स्वर्याता: सपदि सुहृदो जीवितसमा:। शनैर्यष्टियुत्थानं घन
तिमिररुद्धेऽपि नयने अहो दुष्टा काया तदपि मरणापायचकिता।' यदि
भगवच्रणानुसरण एवं सदाचरण न हो सका तो हम क्या हैं, राह
चलने वाले तक धिक्कारेंगे और कहैंगे कि - 'कहा धन धामैं
धरि लेहुगे सरा मैं भए जीरन जरा मैं तहू रामैं ना भजत हौ।' यदि
समझ जओगे तो अपना लोक परलोक बनाओगे, दूसरों के लिए उदाहरण के
काम आओगे, नहीं तो हमें क्या है, हम
तो अपनी वाली किए देते हैं, तुम्हीं अपने किए का फल पाओगे
और सरग में भी बैठे हुए पछिताओगे। लोग कहते हैं बारह बरस वाले को वैद्य क्या?
तुम तो परमात्मा की दया से पंचगुने छगुने दिन भुगताए बैठे हो। तुम्हें
तो चाहिए कि दूसरों को समझाओ, पर यदि स्वयं कर्तव्याकर्तव्य
न समझो तो तुम्हें तो क्या कहैं, हमारी समझ को धिक्कार है
जो ऐसे वाक्यरत्न ऐसे कुत्सित ठौर पर फेंका करते हैं।
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