कविता.... कुत्ता और मैं.....




डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला 
प्रख्यात कवि, साहित्यकार एवं समीक्षक 
(ICCR हिंदी चेयर, वॉरसॉ विश्वविद्यालय, पोलैंड)

कुत्ता और मैं...
मैंने कुत्ते से कहा-
तू निरा कुत्ता है
कुत्ता ही रहेगा
तुझमें अक्ल कहाँ?
बार-बार दुत्कारने पर भी
बार-बार मार खाने पर भी
तू अपने स्वामी के आगे
दुम हिलाता, घूमता है।

वह संयम स्वर में बोला-
हाँ! मैं दुम हिलाता हूँ
बार-बार मार खाने पर भी
उसके हाथों-पैरों को चाटता हूँ
उसके सामने सिर झुकाकर बैठता हूँ
क्योंकि मेरे पास हृदय है।

मैं उसी से सोचता-चलता हूँ
मैं जानता हूँ, वही मेरा स्वामी है
वही मुझे सब कुछ देता है
खाना, पहनाना, प्यार करना
बीमार होने पर डॉक्टर को दिखाना
मेरी दुनियाँ उसी से है।

वह फिर आगे बोला-
तुममें और मुझमें अंतर है
मैं कुत्ता होकर भी कृतज्ञ हूँ
उस स्वामी के प्रति
जिसने मुझे इस रूप में
सब कुछ दिया
तुम कृतघ्न हो
तुम्हारे पास बुद्धि है
समय-समय पर अपने
स्वामी बदलते रहते हो
जो तुम्हारे अनुरूप हो
वही तुम्हारा सत्य है,
वही तुम्हारा औचित्य है
मैं कुत्ता हो कर भी कृतज्ञ हूँ
तुम इंसान होकर भी कृतघ्न हो।

यह सुनकर मैं भौचक्का रह गया
अपनी बुद्धि के अहंकार को
चूर-चूर देखता रह गया
हम क्यों स्वार्थ की खातिर
ऐसा करते हैं
अपने रिश्तों में धोखा करते हैं।
पल भर के स्वार्थ में
अपनों को भूलकर
दूसरों का आँचल थाम लेते हैं
अपने लालच में देश को भी भूल जाते हैं
बुद्धि का सही प्रयोग भूल जाते हैं
ईश्वर के वरदान को भूलकर
ईश्वर को ही महज मज़ाक बना लेते हैं
हमसे ज्यादा और कौन कृतघ्न होगा
यह हमें सोचना होगा

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