प्रतिशोध: राष्ट्रप्रेम की अद्भुत मिसाल
प्रतिशोध:
राष्ट्रप्रेम की अद्भुत मिसाल
डॉ.
सुधांशु कुमार शुक्ला
चेयर
हिंदी, आई.सी.सी.आर.वार्सा यूनिवर्सिटी, वार्सा पोलैंड
+48579125129
ऐतिहासिक, भौगोलिक और तत्कालीन
परिस्थितियों की समझ रखकर साहित्य की रचना करने वाले प्रायः कम ही होते हैं। अपने
राष्ट्र को, राष्ट्रीयता को सच्चाई के साथ दर्शाना बहुत बड़ी
बात है। जयशंकर प्रसाद, वृंदावनलाल वर्मा, डॉ रामकुमार वर्मा, दया प्रकाश सिन्हा के साहित्य
में देखने को यह मिलता है। अभी हाल ही में पढ़ी डॉ बी.एल. गौड़
की कहानी ‘प्रतिशोध’ पढ़कर मन
इतना भावुक हो उठा के प्रसाद जी की आकाशदीप, पुरस्कार और डॉ.
रामकुमार वर्मा की प्रसिद्ध एकांकी ‘प्रतिशोध’ मानस पटल पर उभरने लगी। वास्तव में ऐसा कहानीकार,
जो मात्र स्वांत सुखाय के लिए लिखता हो और वह समष्टिगत हो जाए, यह माँ सरस्वती की अद्भुत कृपा डॉ. गौड़ जी पर है। जीवन के विविध पक्षों
में राष्ट्र और मानवता का अद्भुत संगम इनके साहित्य में देखने को मिलता है।
‘प्रतिशोध’ कहानी वियतनाम के युद्ध की पृष्ठभूमि पर आधारित
है। सन 1960 में वियतनाम दो भागों में
विभक्त था, दक्षिण वियतनाम जिसका साथ अमेरिका की सेना दे रही
थी, दूसरे भाग उत्तरी वियतनाम ची चिन्ह की राष्ट्रीय सेना के
साथ चीनी फौज साथ में पक्षधर की भूमिका में थी। इस युद्ध में अमेरिका फौज की
बर्बरता और अमेरिकन फौज का नुकसान, उस की बर्बादी जगजाहिर है।
गौड़ जी ने ऐसे परिवेश में यथार्थ घटना को कहानी में चित्रित किया है, जो कि बेमिसाल कहानी बनी है। लेखक ने लिखा है “ उत्तरी वियतनाम में जिन गाँवों को तबाह
किया गया था, उन्हीं में से एक गाँव की यह कहानी है।
जो रेड रिवर (लाल नदी) के किनारे पर बसा हुआ था। इस गाँव का
जिसका नाम मुझे अब याद नहीं पर युवती का नाम याद है, जिसके
विषय में इस कहानी की रूपरेखा 52 वर्ष पूर्व बनी थी।” (मीठी
ईद तथा अन्य कहानियाँ, पेज -17)
26 वर्षीय
‘नूगेन थी दिन्ह’ की यह कहानी
है जो 2 वर्ष बाद अपने देश उत्तरी वियतनाम में जर्मनी से शोध
कार्य पूरा करके लौटी है, जहाँ उसका मंगेतर वोन गोयथे था, जिसके साथ जर्मनी में ही सगाई रचाकर दोनों ने अपने-अपने परिवार को सूचना
दे दी थी। माता-पिता के आशीर्वाद को लेकर दोनों विवाह करना चाहते थे। “थी के देश में युद्ध चल रहा था। उसके गाँव में जश्न मन रहा था, विवाह कार्य संपन्न होने में अभी देर थी इसी बीच सारा आकाश अमेरिकी हवाई
जहाजों की गड़गड़ाहट से थर्रा उठा और देखते ही देखते आसमान से आग बरसने लगी। जिसको
जहाँ जगह मिली उस ओर भागा, आनन-फानन में सारा गाँव धू-धू कर
जल उठा। शादी का बड़ा शामियाना पल भर में राख में तब्दील हो गया और थी का पूरा गाँव
नेस्तनाबूद हो गया।” (पेज-18) माँ-बेटी और पिता तीनों निराश, हताश, उदास भोजन की तलाश में भटक रहे थे। पिता नदी
से मछलियाँ पकड़ कर लाने गया हुआ था और माँ-बेटी घर में बचे थोड़े से अनाज से रोटी
बनाने की सोच रही थी। मन में अभी सोच-विचार चल ही रहा था कि थी ने जब अचानक दरवाजे
के खटखटाने की आवाज सुनी, तो वह डर गई। देखते ही देखते 2
अमेरिकी सैनिक हथियारों से लैस जबरदस्ती घर में घुस आए। इसी बीच
पिता भी नदी से घर वापस आ गया। ये छाताधारी सैनिक वियतनाम की फौजों के ठिकानों का
पता अपनी सेना को भेजते थे। दोनों सैनिकों ने बूढ़े माता-पिता और थी को ठोकरें मार
कर पलंग के दूसरी ओर धकेल दिया। अब ये तीनों यह बात अच्छी तरह समझ भी गए कि इन से
जबरन कुछ नहीं किया जा सकता।
रात्रि में जॉन शराब का गिलास और कुछ खाने का
सामान तख्त पर रख कर चला गया। थी के पिता अपनी विवशता और भूख के कारण सुबह तक सब
कुछ खा गए। तीन चार दिन में उन सैनिकों ने थी के माता-पिता को शराब पिलाकर अपनी ओर
मिला लिया। “एक रात शराब में कुछ नींद की गोलियाँ मिलाकर दी थी, जिसके कारण वे दोनों कुछ ही देर
में बेहोश हो गए और तब शुरू हुआ उन दोनों आतंकियों का कुटिल तांडव। उन दोनों ने
दूसरे कमरे में सोई हुई थी को ऐसे दबोच लिया जैसे शेर अपने शिकार को एक ही बार में
कहीं का नहीं छोड़ता और कुछ पल की छटपटाहट के बाद उसका शरीर प्राणहीन हो जाता है।
(पेज -21)
सुबह लुटी-पिटी, जख्मी थी का सब कुछ उजड़ा हुआ था। थी के माता-पिता
बेटी की यह हालत देखकर चीत्कार कर रहे थे, लेकिन थी शांत-जड़
बन चुकी थी। दो दिन बाद जॉन हैलिकॉप्टर से जाते समय उससे आई लव यू बोला। गुस्से
में थी ने उसके मुँह पर थूक दिया, वह हँसता हुआ उठा और चला
गया। समय बीतने लगा, क्या करें? क्या न
करें? की धुन में वह आठ महीने की गर्भवती हो गई थी। कहानी
में इस बात को स्पष्ट करते हुए लेखक लिखता है कि, “समय
बीतते देर कहाँ लगती है। राम के बनवास के चौदह बरस बीतने में केवल एक ही दिन शेष
बचा था तब तुलसीदास जी ने लिखा था, दिवस जात लगहि
लागी वारा रहेउ एक दिन अवधि अधारा इस तरह की चौपाई रामायण जिसके द्वारा तुलसीदास जी
बताते हैं कि दिन बीतने में देर नहीं लगती। पता नहीं चला कब आठ महीने बीत गये। थी को
एक जिल्लत ढोते-ढोते।” (पेज-23)
कई बार वह आत्महत्या करने की सोचती, कभी वह अपने मंगेतर के बारे में
सोचती। गौड़ जी की अद्भुत दृष्टी ने यहाँ कहानी को नई उद्भावनाओं के साथ अद्भुत रंग
बिखेर दिया है। “जॉन ने जाते हुए कहा था, मैं अपने
बच्चे से मिलने आऊँगा, मुझे यह तारीख हमेशा याद रहेगी, मैं अपने बच्चे से मिलने जरूर आऊँगा। तुम देखना कि वह लड़का ही होगा और
उसकी आँखें मेरी आँखों की तरह नीली होंगी।” (पेज-22) इस
बात ने थी को ना आत्महत्या करने दी और न ही अनचाहे गर्भ को गिराने दिया।
जॉन का वक्तव्य, उसका वाक्य उसके मानस पटल पर इस तरह छाया कि समय
बीतते देर न लगी और युद्ध भी शांति की ओर लौटने लगा था। इसी बीच जॉन दुबारा आया और
बहुत सारा सामान थी के माता-पिता को दिया। जॉन अब की बार थी के घर नहीं रुका। वह थी
के माता-पिता को शराब पिलाता। थी से बात करने की कोशिश करता पर सफल न हो पाता। “एक दिन थी ने रात में एक बच्चे को जन्म दिया।
जॉन अपने बच्चे को देखने की मिन्नत करने लगा, तब थी
ने माँ से कहलवाया कि वह बारह बजे के करीब आए और अपने बच्चे को देख ले। जॉन वहाँ
से गया नहीं सामने एक पेड़ के नीचे बैठकर बारह बजे का इंतजार करने लगा।” (पेज- 24)
थी ने सबकी नजर से बचकर कपा देने वाली ठंड में
उस नन्हीं सी जान को लाल नदी के पानी में कई डुबकियाँ लगवाई और फिर उस निर्जीव देह
को सफेद तौलिये में लपेटकर घर लौट आई। (पेज-24)
तौलिए
में लिपटे बच्चे को थी जब जॉन को देती है, तब जॉन उसे निर्जीव
देख कर रोता-चिल्लाता है। तू हत्यारिन है, तूने मेरे बच्चे
को मार दिया। इसी बीच थी उसकी गन उठाकर उसे छलनी कर डालती है। थी अपने माता- पिता
के साथ उस जगह को छोड़कर जाने की सोच रही थी। उसी समय एक सेना की जीप वहाँ पहुँची।
कर्नल समझ गया कि अमेरिकन सैनिक और बच्चा कैसे मरा? उसने
उन्हें वहीं रुकने को कहा। धीरे-धीरे उत्तरी वियतनाम में जिंदगी शुरु होने लगी।
वहीं कर्नल एक दिन आता है और उसे एक लिफाफा देता है, जिसमें
उसे लाल चौक पर वीर पुरुष और महिलाओं के साथ सम्मानित करने को लिखा था। थी के मन
में कर्नल के प्रति कुछ लगाव पैदा होता है, लेकिन मंगेतर गोयथे
का चेहरा उसे छिन्न-भिन्न कर देता है। सेना के चीफ द्वारा फूलों की माला से थी को
सम्मानित किया जाता है। तभी भीड़ में से एक युवक लाल गुलाबों की माला को लेकर
उपस्थित होता है, वह उसका मंगेतर ही था। उसने थी की सारी
दास्तान समाचारपत्र में पढ़ ली थी और उसके बाद वह स्वयं कर्नल से मिला था, उसने सोच लिया था कि वह अपनी थी के लिए खुद एक सरप्राइज देगा। थी गोयथे
की बाँहों में थी हजारों हाथ करतल ध्वनि दे रहे थे और फूलों की वर्षा हो रही थी।
यह कहानी शुद्ध रूप से 1960 में हो रहे वियतनाम के युद्ध के समय को दर्शाती है। वियतनाम
के परिवेश, नदी, पात्रों के नामों को
भी दर्शाती है। गौड़ जी ने इस परिवेश में अपनी कल्पना शक्ति से नहीं उद्भावनाओं से
युक्त नारी पात्र थी के चरित्र को संजोया है। एक नारी 26 वर्षीय
जिसका विवाह उसकी मर्जी के मंगेतर के साथ होने वाला था। अमेरिकन सैनिकों द्वारा
रेप करने के करने से त्रस्त-हताश नारी की मन:स्थिति को बहुत ही बेहतरीन ढंग से
दर्शाया गया। स्वाभिमान चरित्र की आधारशिला होती है। ‘थी’ उसी स्वाभिमान के लिए जॉन के जाते हुए वाक्य को अपने मानस पटल पर कर लेती
है। उसके मन में जॉन से प्रतिशोध लेने का इससे अच्छा उपाय क्या हो सकता था। जॉन
जिस बच्चे को देखने के लिए बेचैन था, जो बच्चा उसी की तरह
सुंदर नीली आँखों वाला था। उसकी प्रसन्नता को चीतकार में बदल देना, उसको प्रसन्न करने वाले उसके बच्चे को मृत रूप में देना। इससे बड़ा
प्रतिशोध विश्व किसी के किए गए अनाचार के विरुद्ध क्या हो सकता है, मुझे लगता है कि यह कहानी और इस प्रकार का प्रतिशोध विश्व साहित्य में
अनूठा ही होगा। जॉन को गोलियों से मारा मारकर ‘थी’ अपना प्रतिशोध लेती है। यह उसका प्रतिशोध राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र भक्ति
भी है। अपने देश का दुश्मन अपना दुश्मन होता है। रामकुमार वर्मा की एकांकी ‘प्रतिशोध’ में पिता श्रीधर अपने पुत्र भारवि को
शास्त्रार्थ में विजयी होने पर भी विद्वानों के समक्ष मूर्ख अज्ञानी कहकर
प्रताड़ित करता है। जिससे पुत्र पिता से प्रतिशोध लेने के लिए उसको मारने का
कार्यक्रम बनाता है। लेकिन जब माता सुशीला और पिता श्रीधर के संवाद को सुनता है तब
उसे अपने पर गुस्सा आता है। उसका पिता गर्व से, अहंकार से
बचाने के लिए उससे वह ऐसे शब्द बोला था। पुत्र फिर अपने आप से प्रतिशोध लेने के
लिए पिता के बताए छह मास तक ससुराल में सेवा करके, झूठे भोजन
पर अपना पालन-पोषण करता है। विनायक दामोदर सावरकर का नाटक ‘प्रतिशोध’ आक्रमणकारी हिंसक लुटेरों के प्रति एक
उत्तर है। प्रतिशोध की भावना से रहित राष्ट्र पौरुषहीन होता है। प्रतिशोध पौरुष का
लक्षण है। प्रतिशोध से भय खाने वाला राष्ट्र टिक नहीं सकता। यही भाव मनुष्य और
राष्ट्र में होना चाहिए।
इस
कहानी में एक बात और भी उभर कर आती है कि क्या माँ डायन हो सकती है? अपने जन्में बेटे को इस तरह मार सकती है। इसका उत्तर हाँ है।
प्रतिशोध की आग दहला देने वाली होती है। यह बदला नारी के स्वाभिमान का है। यह बदला
उसके साथ किए गए अमानवीय अपराध का है। इस अपराध से उपजी संतान को, अमानवीय कृत्य की परिणति को थी अर्थात नारी कैसे अपना मान लेती। थी के
चरित्र को कहानीकार ने इस रूप में चित्रित करके अद्वितीय बना दिया। देश के दुश्मन
और दुश्मन के बेटे को कोख में रखने पर भी प्रतिशोध की आग को उसने शांत नहीं होने
दिया। दोनों को मार कर ही अपना प्रतिशोध पूरा करती है। यही कारण है कि अंत में उसे
वीर महिला के रूप में सम्मानित भी किया गया। गोयथे का अपनी मंगेतर को सब कुछ जानते
हुए हर्षोल्लास के साथ अपनाना प्रेम के सात्विक भाव को दर्शाता है। यही प्रेम का
भाव मानवतावाद का, इंसानियत का और ईश्वर साधना का दूसरा रूप
है प्रेम का आधार शरीर नहीं हृदय है, जो गंगा की तरह पावन है।
कहानीकार की परिस्थिति के साथ उससे उपजी मनोदशा
को चित्रित करने की कला अपने में अनूठी है, जो एक कलमकार का विशेष
गुण होता है। प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’
में घीसू और माधव का चरित्र प्रसव-पीड़ा से चित्कार करती बुधिया को नजरअंदाज करते
भूख से पीड़ित मृत मानवीय मूल्यों से घिरे बाप-बेटे का आलू खाने के दृश्य को याद
दिलाता है। ‘भूख और व्यवस्था आदमी के ज्ञान को भी चट कर
जाती है न चाहते हुए भी थी के पिता ने न जाने कब वह शराब गटक ली’ (पेज-20) कहानी में एक जगह और जॉन के दुबारा बहुत
सा सामान लाकर देने पर पिता की स्थिति को इस प्रकार चित्रित किया है, “थी एक टक इस सारे सामान को देख रही थी,
उसने सोचा यह सारे सामान को बाहर फैंक दें तभी उसकी नज़र अपने पिता पर गई, जो सारे सामान को ऐसे चैक कर रहा था मानो किसी स्टोर से खरीदकर लाया हो
और बिल के साथ वस्तुओं का मिलान कर रहा हो।” (पेज- 22)
संवेदना
और शिल्प की कला से सजी और सँवरी यह कहानी हर कसौटी पर खरी उतरती है। प्रतिशोध की
भावना, प्रतिशोध के नाम पर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है। हमारा
इतिहास ही नहीं विश्व का इतिहास प्रतिशोध के उदाहरणों से भरा है। लेकिन अनिष्टकारी
के साथ ऐसा प्रतिशोध बेमिसाल है। यह प्रतिशोध नारी-सम्मान,
नारी- स्वाभिमान को ठेस पहुँचाने वाले के प्रति है। यही स्वाभिमान राष्ट्र प्रेम
की आधार शिला है, जो व्यक्ति अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं
कर सकता है, वह मृतक है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा
है,
“जिसको न निज गौरव
तथा निज देश का अभिमान है
वह नर
नहीं, पशु निरा और मृतक समान है।”
यह कहानी राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रीयता और प्रेम के सात्विक भाव को दर्शाती है। इसे
विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगाकर युवकों को प्रेरित किया जा सकता है। नारी
की गरिमा का उदात्त रूप फिल्म की तरह कहानी में चित्रित किया गया है। यह कहानी
फिल्म जगत की अचूक फिल्म बनकर भारत का गौरव बढ़ा सकती है। इस कहानी को पढ़िए और विचार
कीजिए। कहानीकार का सफल प्रयोग तभी सार्थक होगा। पुनः डॉ. बी.एल. गौड़ जी को अद्भुत
कहानी के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद।
‘नोट:- मीठी ईद तथा अन्य
कहानियाँ, लेखक- बी.एल. गौड़ सजग प्रकाशन दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2015.”
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