भारतीय समाज की दिग्भ्रमित वैचारिक प्रवृत्तियाँ
भारतीय समाज की दिग्भ्रमित वैचारिक प्रवृत्तियाँ
डॉ. सी. एल. सोनकर
डी. एम. कम्पाउण्ड आफिसर्स कालोनी, भुजौटी, मऊ
मानव विज्ञान (Anthoropology) के अध्ययनों से अब यह स्पष्ट हो
गया है, कि संसार की विभिन्न संस्कृतियों में अनेक ऐसे
प्रचलन हैं, जिन्हें एक में तो मान्यता प्राप्त है, किंतु दूसरे में उसी को अत्यंत बुरा समझा जाता है। प्राचीनकाल में अनेक
संस्कृतियों में भूत-प्रेत के अस्तित्व में विश्वास किया जाता था और इन्हें ही
बहुधा मानसिक रोगों का कारण समझा जाता था, इनसे मुक्ति पाने
के लिए रोगियों को मारने-पीटने, तरह-तरह की यातनाएं देने, अथवा आग में जला देने तक की प्रथाएं थीं। आज हम इन प्रथाओं को पागलपन
कहते हैं। कहीं-कहीं जातीय देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नर-बलि प्रचलन में थी, किंतु क्या इसे आज हम सामान्य व्यवहार या प्रथा कह सकते हैं?1 युग-युगांतरों के वातावरण पर अधिक प्रभावी होने के कारण मानव बाहरी
आवश्यकताओं के बंधन से क्रमशः मुक्त होने को प्रगति कहते हैं और यही कुछ स्तर या
निम्न स्तर के प्राणी की तरक्की या प्रगति और अवरोध का मापदंड है।2
परिवार के विविध रूप में केवल तीन पीढ़ी के वंशजों को ही विधिक अधिकार प्राप्त थे।
चौथी पीढ़ी और उसके बाद के वंशज संयुक्त संपत्ति संबंधी अधिकार के हकदार नहीं माने
जाते थे। इस अस्तित्व का मूल आधार मनु की वह व्यवस्था है,
जिसमें कहा गया है कि तीन पितरों को उदक (जल) एवं पिंड का दान दिया जाता है, जिसे चौथा वंशज देता है, पाँचवे वंशज से पिंडदान से
कोई संबंध नहीं होता है।3
भौतिक दशाओं के रूप में 1.गोल पदार्थ की तरह
पृथ्वी 2.स्थल के रूप 3.पानी के आशव 4.मिट्टी और खनिज तथा 5.जलवायु का वर्णन किया
जाता है। इसी प्रकार जीवन के रूपों में अ.पौधे,
ब.जानवर, स.मनुष्य-मनुष्य की आवश्यकता अ.वस्तुओं की
आवश्यकताएँ, ब.बुनियादी आवश्यकताएँ,
स.कार्यक्षमता, द.उच्चतर आवश्यकताएँ हैं।4
जलवायु के अनुसार भिन्न-भिन्न भूमि क्षेत्र के निवासियों में भिन्न-भिन्न कार्य
शैलियां प्रकट होकर अपने स्थानीय अंचलों में सदैव से ही फूलती-फलती रही है।5
मानव प्रक्रियाओं में 1.भोजन और पानी, 2.परिधान, 3.आश्रय, 4.उपकरण, 5.यातायात
के साधन, 6.शिकार, 7.मछली पकड़ना, 8.पशुपालन या पशुचारण, 9.खेती करना 10.लकड़ी काटना, 11.खनन, 12.निर्माण, 13.वाणिज्य, 14.स्वास्थ्य, 15.संस्कृति प्रोत्साहन, 16.मनोरंजन, 17.सरकार, 18.शिक्षा, 19.सेवाएं, 20.धर्म, 21.कला साहित्य आदि को
सभ्यता और प्रगति कहते हैं।6
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। सामाजिक उथल-पुथल, वैभव-पराभव, आशा-निराशा, शांति-संघर्ष में सक्रिय भाग न लेकर तथा उदासीन दृष्टा होकर भी, वह इन सबके प्रभाव से अछूता नहीं रहता।7 मानव जीवन
सामाजिक जीवन है और वह व्यक्ति समाज से ओतप्रोत होता है। उसका कोई काम समाज की
सहायता के बिना नहीं चलता, क्योंकि उसका हर काम सामाजिक
नियमों, बंधनों तथा परंपराओं से अनुप्रेरित एवं प्रतिबद्ध
होता है।8 आज हम जिस युग में जी रहे हैं,
विचार और व्यवहार बहुत शीघ्र ही एक दूसरे देश तथा एक क्षेत्र से दूसरे देश में
संप्रेषित या प्रसारित हो जाते हैं।9 मानव जीवन के कुछ आदर्श और
मूल्य होते हैं। इसीलिए इसमें शुद्ध और अशुद्ध, उचित और
अनुचित आदि मूल्यात्मक प्रयत्नों का प्रयोग होता है। ज्ञान के क्षेत्र में मूल्य
निरपेक्षता ही मूल्य माना जाता है।10
मानव क्रियाकलापों के भौतिक, मानसिक तथा सामाजिक तीनों ही क्षेत्रों में
अनेक तरीकों से उन्नति संभव हो सकती है। अतिनूतन युग के बाद इस सब क्षेत्रों में
हमने बहुत कुछ कर लिया है तथा भविष्य में इससे भी अधिक कर सकते हैं। बहुत संभव है
कि भविष्य का मानव हमारी क्षमताओं को दूर कर सकेगा, और अपने
विचारों तथा कार्यों द्वारा ऐसी श्रेष्ठ मानसिक तथा सामाजिक व्यवस्था का निर्माण
कर सकेगा, जो स्थानीय प्रतिष्ठा वाली मानव जाति से प्रकृति
द्वारा नियोजित महत्त्व से अधिक सुसंगत होगी।11 अधिकांश मानव
व्यवहारों का विकास उसके प्रतीकात्मक व्यवहार की क्षमता पर आधारित है, जो कि स्वयं में तंत्रिकी-शारीरिकी उद्विकास का एक परिणाम है।12
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर गतिशील रहती है। सामाजिक व्यवस्था को बनाए
रखने वाले मूल्य और रीतिरिवाज, सामूहिक चेतना में अपना
स्वचालित प्रभाव रखते हैं। इन मूल्यों और विश्वासों में परिवर्तन अत्यंत दुरुह
होता है, साथ ही सामाजिक विकास की धारा में व्यवहार के
प्रतिमानों का संयोग अत्यावश्यक होता है। सामाजिक आंदोलन द्वारा इन्हीं मूल्यों, विश्वासों व रीतिरिवाजों के प्रति सामूहिक चेतना जाग्रत होती है तथा
रूढ़िवादी विचारों पर प्रहार किए जाते हैं।13
हिटलर ने कहा,
कि किसी भी राष्ट्र की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा अपने स्वरूप और दृष्टिकोण से
अत्यंत संवेदनशील होता है। उसका व्यवहार जो गंभीर सोच के बजाय भावनाओं से ही
प्रभावित होता है। उसके मनोभाव स्थिर न रहकर लगातार बदलते रहते हैं। किसी विषय के
संबंध में जनसाधारण की अनुरक्ति और विरक्ति की, उसे उचित-अनुचित
तथा सत्य-असत्य समझने की धारणाएं भी बदलती रहती हैं। उसकी विचारधाराएँ अंशतः कभी
एक ओर और अंशतः कभी दूसरी ओर होती हैं।14 परिवर्तन सामाजिक
व्यवस्था का एक प्रमुख अंग है। सामाजिक परिवर्तन का आशय जीवन की स्वीकृत रीतियों
में होने वाले बदलाव से है। ये परिवर्तन चाहे वैज्ञानिक कारणों से हों या भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक या जनसंख्या की संघटना आदि के
कारण हों; सामाजिक संबंधों में होने वाला परिवर्तन ही
सामाजिक परिवर्तन के अंतर्गत गणनीय है। सामाजिक परिवर्तन का दृष्टिकोण देश, काल, स्थान तथा परिस्थिति आदि के आधार पर बदलता
रहता है। विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तन का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता है। सामाजिक
परिवर्तन के अंतर्गत समूह में महत्वपूर्ण परिवर्तन होता है। भारत में शक, हूण, कुषाण, अरेबियन व अनेक
विदेशी यात्रियों तथा अनेक आक्रमणों ने भारत के सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण
भूमिका अदा की। सोलहवीं शताब्दी में समुद्री मार्ग से पुर्तगाली, डच, फ्रेंच तथा अंग्रेज आए। इन सब ने भी भारतीय
समाज को काफी प्रभावित किया। सामाजिक
विचारधारा के इतिहास का अध्ययन करने के लिए हमें सबसे पहले सामाजिक मनोविज्ञान के
बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। इस विज्ञान के अंतर्गत एक ओर
समाज की प्रकृति, संरचना एवं अंतःक्रियात्मक प्रक्रियाओं का
अध्ययन करना पड़ता है, जबकि दूसरी ओर व्यक्ति के शारीरिक व
मानसिक आधारों का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है। सामाजिक मनोविज्ञान में मनुष्य
की अभिवृत्तियां एवं उनकी माप, व्यक्ति एवं समाज, संस्कृति, समुदाय, समूह, प्रजाति एवं प्रजातिवाद, समिति एवं संस्था, प्रस्थिति एवं भूमिका, नेतृत्व, सामाजिक तनाव व परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय तनाव, जनता एवं जनमत, अफवाह का जनप्रवाह, भीड़ एवं श्रोता समूह, सामूहिक व्यवहार व समूह गमन
आदि का अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मनोविज्ञान के विषय क्षेत्र के अंतर्गत इसकी
मूल प्रवृत्तियों, प्रेरणाओं, अनुकरण, सामाजीकरण, धर्म, व्यक्तित्व, समूह, प्रथा व परंपरा, जनमत, युद्ध व क्रांति, प्रचार व फैशन आदि विभिन्न एवं
बहुआयामी पक्षों का अध्ययन किया जाता है। सामाजिक मनोविज्ञान में समाज के व्यक्ति
के व्यवहार का अध्ययन, व्यवहार की भविष्यवाणी, व्यवहार की व्याख्या एवं सामाजिक अवरोधकों तथा सामाजिक तनावों को दूर
करने विषयक सुझाव व विभिन्न समूहों के अध्ययन की समस्याएँ प्रमुख विषय रहे हैं।
मनुष्य उम्र, अनुभव, आवश्यकता व
उपयोगिता के आधार पर अपने वैचारिक भाव बदलता रहता है। अधिकांश व्यक्तियों का मानना
है कि जो भी हो रहा है, उसमें भगवान की कृपा है, किंतु व्यक्ति अपने कर्तव्य से कितनी वास्तविक प्रगति कर पाया? इसका लेखा-जोखा हमेशा विचारणीय रहा है। बदलाव की कामना के कारण
बुद्धिजीवी लोग हर किसी पुरानी चीज से असंतुष्ट व विमुख होकर नई की तलाश में लग
जाते हैं। वे अपने निकटस्थ हमदर्द साथियों की इच्छाओं को समझना तो दूर, वे तो अपने आपको भी समझने की कोशिश नहीं करते।
वैयक्तिक यातनाओं का संदर्भीकरण उनके प्रतिकार का
एक आजमाया हुआ अस्त्र है। तकलीफ खतरनाक चीज होती है। इससे यह उम्मीद नहीं करनी
चाहिए कि वह अंतकाल तक अंधेरे कोनों में मुंह लपेटे पड़ी रहेगी।15
जीवन के सुख के लिए मानव समुदाय की अभिलाषाएँ बढ़ने के कारण मनुष्य के दृष्टिकोण
में परिवर्तन हुआ और नवीन मूल्यों को अपनाया जाने लगा। प्रतियोगिता की भावना में
वृद्धि होने लगी तथा लोग ऊंचे-ऊंचे उद्देश्य बनाने लगे। आपसी तनाव, झगड़े, मनमुटाव, दृढ़ता तथा कुंठाएँ उसी क्रम में बढ़ने लगी।16 जिस
किसी भी समाज में सामाजिक रिश्तों का आधार ओहदा या रूतुबा होता है या जहां ऊंच और
नीच का भेद है, वहां किसी न किसी रूप में वर्गव्यवस्था देखी
जा सकती है। सामाजिक वर्ग; समाज का एक ऐसा अंग है, जो अन्य अंगों से सामाजिक ओहदे या मर्यादा के आधार पर अपना विशिष्ट महत्व
रखता है। सामाजिक वर्ग व्यवस्था, अंतिम विश्लेषण में उच्चतम
परंपरा (हायरार्की) का पोषण करती है। इसमें ऊंच-नीच या छोटे-बड़े के भेद होते हैं
और अंत में समाज में यह व्यवस्था एक प्रकार का स्थायित्व प्रदान करती है।17
यदि हम प्राकृतिक दासता से मुक्ति चाहते हैं, तो सामाजिक
दासता से भी मुक्ति मिलना चाहिए, क्योंकि बंधन मुक्ति ही
मनुष्य का ध्येय है।18 बचपन के सुधार से भावी समाज सुधरेगा।
बच्चे ही समाज व राष्ट्र की दिशा का भविष्य है।
व्यक्ति व समाज की आपस में एक दूसरे पर आश्रित
हैं, क्योंकि व्यक्ति पर समाज का तथा
समाज पर व्यक्ति का प्रभाव पड़ता है। सबसे आदिम सामाजिक विचारधारा कहावतों लोक
कथाओं व लोकगीतों आदि के माध्यम से प्रकट होती थी। इनके माध्यम से मनुष्य ने अपनी
आशा, आकांक्षा, आदर्श तथा इच्छाओं को
अभिव्यक्त करने का साधन बनाया। उनके मनोभावों से मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक
नियंत्रण भी हुआ करता था, क्योंकि इन कहावतों, लोक गाथाओं व लोक गीतों का एक सामूहिक स्वरूप होने से, 1.लोगों के व्यवहार पर एक प्रकार का बाह्यमूलक प्रभाव पड़ता था तथा 2.मानव
के प्राकृतिक पर्यावरण में पलने से उनमें उसका प्रभाव प्रत्यक्ष तथा सुस्पष्ट भी
था। इनका क्रमबद्ध ज्ञान न होने के कारण इस लोक-चिंतन से कोई भी सिलसिला ढूंढ
निकालना कठिन रहा है। सामाजिक जीवन को व्यवस्थित व नियंत्रित करने के लिए कही गईं कहावतें; जैसे बुराई का बदला बुराई ही मिलता है, पाप का फल
बुरा होता है व एकता में बड़ी ताकत है। इस प्रकार कहावतों का आज भी अपना अलग महत्व
है। भारत में वेदों, उत्तरवैदिक ग्रंथों, जैन व बौद्ध ग्रंथों, रामायण और महाभारत रूपी
महाकाव्यों, स्मृतियों व पुराणों तथा विदेशी यात्रियों के
विवरणों आदि के अध्ययन से भारतीय समाज, परिवार, व्यक्ति, धर्म, आचरण व जाति आदि
के विषयों के विकास व स्तरों का ज्ञान होता है।
मनुष्य अपने प्रारंभिक जीवन में संस्कारहीन रहा
है। सामाजिक विकास के क्रम में परस्पर सानिध्य के कारण उसने एकत्र होकर संस्कार
युक्त होने का प्रयास किया है। सामाजिकता के क्रम में संस्कृति का अभूतपूर्व
योगदान रहा है। इसके अभाव में समाज का संतुलित स्वरूप निर्मित होना असंभव है।
मनुष्य भी अपने आदिम व्यवस्था में व्यक्तिगत एवं सामूहिक; दोनों रूपों में असंस्कृत रहा है। धीरे-धीरे
अपने ऊपर प्रतिबंध लगाकर अनुचित को दबाकर तथा उचित को बढ़ावा देकर उसका विकास हुआ
है। व्यक्ति ने अपने में शरीर व मन को शुद्ध कर एक ओर व्यक्तिगत विकास तो दूसरी ओर
उसका समूह में शिष्टाचरण तथा समाज में उसके उचित व्यवहार ने उसे सुसंस्कृत बनाया
है।19 भारत
विभिन्न वर्णों, जातियों, समुदायों, संप्रदायों, समूहों,
धर्मावलंबियों, संस्कृतियों एवं भाषाओं का देश है, फिर भी यहां किसी न किसी रूप में विविधता में एकता परिलक्षित होती है।
यहां का समाज अनेक प्रकार के स्तरों में विभक्त है। सामाजिक स्तरीकरण में असमानता
के आधारों में ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा,
बुद्धिमान-बुद्धिहीन, संपन्न-विपन्न,
स्त्री-पुरुष, क्षेत्रीयता, जातीयता, सांप्रदायिकता, वर्ण एवं भाषावाद आदि प्रमुख
विचारणीय विषय हैं। देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों व राज्यों के खान-पान अलग-अलग
हैं। पश्चिमी बंगाल व मद्रास में चावल, केरल में टपियोका एवं
दक्षिण भारत के अन्य राज्यों में इडली-डोसा वहां का प्रमुख भोजन है। उत्तर प्रदेश
में दाल चावल के खाने व बनाने के लिए भी अलग-अलग विधियां प्रयोग में लाई जाती हैं।
भिन्न-भिन्न प्रांतों में व्यक्तियों के पहनावे, वेशभूषा व
भाषा तथा रीतिरिवाजों में काफी अंतर मिलता है। भारतीय संविधान में भी अठारह प्रकार
के प्रमुख भाषाओं को मान्यता दी है तथा हिंदी को ‘राजभाषा’ का दर्जा दिया गया है। इतना सब होने के बाद भी जातिवाद, क्षेत्रवाद व भाषावाद आदि के प्रकरण हमेशा चर्चा में रहते हैं।
भारत के बाहर का संपर्क तथा प्रभाव पर विचार करने
पर स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति के निर्माण में विभिन्न जातियों का योगदान
रहा है। यहां इरानी, यवन, ग्रीक, पहलव, शक कुषाण, हूण, मुसलमान, यूरोप आदि की जिन-जिन जातियों से उसका
संपर्क हुआ, उनसे शक्ति संचय की व नई ताजगी ली। स्थल और जलमार्ग
से भारत का संपर्क सुमेर, बैबिलोन, असीरिया, सीरिया, फिनीशिया, मिस्र, यूनान तथा भूमध्यसागरीय आदि देशों से रहा। लगातार जातीय संक्रमण, उपनिवेश, व्यापार और विजय की परंपरा चलती रही। साथ
ही जीवन के साधनों, भावनाओं और विचारों के क्षेत्र में
आदान-प्रदान होता रहा। अनेक संस्कृतियों की समेकित परंपराओं का मेल-मिलाप, दास प्रधान भारतीय संस्कृति की रीढ़ बना। नई आने वाली जातियों का योग उसे
मिलता रहा, नई-नई मज्जा, मांसलता उस पर
चढ़ती गई। रक्त की नई नसें उसमें दौड़ती रहीं, पर रीढ़ वही
बनी रही, जो आज तक बनी है।20 सिद्धांत
प्रचलित है कि व्यक्ति से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है, परंतु किसी भी समाज या राष्ट्र का विधिवत अध्ययन करने के लिए नींव की उस
गहराई तक जाना होगा, जहां की मजबूत शिलाओं का आधार लेकर
राष्ट्र तथा समाज का विशाल भवन निर्मित किया जाता है। सीमित क्षेत्र के निवासियों
की प्रकृति कार्य प्रणाली और प्रायः सभी विषयों के संबंध में उनकी रूचि का अध्ययन
प्रस्तुत करना स्थानीय इतिहास का प्रमुख कार्य है।21 मनुष्य जिस
समाज में जन्म लेता है, उस समाज में उसे अनेक बातें
सांस्कृतिक विरासत के रूप में मिलती हैं। सांस्कृतिक विरासत में वे सब अंग शामिल हैं, जो मनुष्य को परंपराओं से प्राप्त होते हैं।22
सांस्कृतिक वर्गीकरण के अंतर्गत
1.प्रजातीय वर्गीकरण 2.भाषा वैज्ञानिक वर्गीकरण, तथा 3.आर्थिक वर्गीकरण आते हैं।23 परिस्थितियां मानव
जीवन-यापन पद्धतियों और स्वभाव में अंतर उत्पन्न करती हैं और इसी के आधार पर एक
संस्कृति दूसरे से अलग हो जाती है।24 पैतृकता तथा वातावरण दोनों
जातीय गुणों को निर्धारित करते हैं, किंतु प्रत्येक के अवसर
की एक अंतिम सीमा है। बहुत कुछ अंश तक पैतृकता की दृष्टि से पूरा मानव समाज एक
बड़ा कुटुंब कहा जा सकता है, क्योंकि सुदूरभूत में हमारे
पूर्वजों से जो पैतृकता हमें वंशानुगत प्राप्त हुई थी, वह आज
भी किसी न किसी अंश तक हममें पायी जाती है और भावी संसार में भी बनी रहेगी।25
समाज के प्रकारों में 1.जनजातीय या आदिम समाज इसकी प्रमुख विशेषताओं में सामान्य
भूभाग, सामान्य भाषा, निश्चित नाम, सामान्य संस्कृति, आदिम व्यवसाय, नृजातीय समूह, राजनीतिक संगठन एवं परंपराओं का
प्रभुत्व है। 2.कृषक समाज के अंतर्गत कृषि की प्रधानता,
ग्रामीण सामाजिक प्रणाली, भूस्वामित्व के विभिन्न रूप, परिवार की भूमिका, साधारण श्रमविभाजन, सादगी और एकरूपता व सामाजिक नियंत्रण की गणना की जाती है। 3.औद्योगिक
समाज की विशेषताओं में औद्योगिक एवं कृषि से इतर कार्यों की प्रधानता, नगरीकरण, व्यवसायों की विविधता, उच्च श्रम विभाजन, वैयक्तिक संबंधों की कमी, नवीन सामाजिक वर्गों का उद्भव, उच्चतर सामाजिक गतिशीलता
व मुक्त समाज प्रमुख हैं। समाज के अन्य प्रकारों में 1.परंपरागत समाज एवं मुक्त
समाज 2.आदिम व नवीन समाज 3.सरल व जटिल समाज 4.ग्रामीण व नगरीय समाज के रूप में
जाने जाते हैं।26
भारतीय समाज में हमेशा से दो
अलग-अलग स्तर रहे हैं, एक उसके पास अत्यंत विकसित धर्म, सामाजिक विचार और संस्थाएँ रही हैं और दूसरे में बहुत सारी तादाद में लोग
थे, जो सांस्कृतिक सीढ़ी के नीचे के पायदान पर रहे हैं। पहला
वर्ग भारतीय संस्कृति का बौद्धिक और अभिजात्य तत्व प्रकट करता है, जबकि दूसरा वर्ग लोक तत्व प्रदान प्रदान करता है।27 भारत
का समाज तथा भारत में समाज दोनों दृष्टिकोण से विचार करने पर ही भारतीय समाज का
अध्ययन करना प्रासंगिक होगा।28 हिंदू समाज की सबसे बड़ी विशेषता
यह रही है कि वह जातियों में विभक्त रहा।29 भारतीय समाज का
गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि भिन्न-भिन्न प्रकार की सामाजिक
मर्यादाएँ विभिन्न भावनाओं व परिस्थितियों से जुड़ी होने के कारण गणित के नियमों
की भांति सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक नहीं होती, फिर भी अधिकांश
लोगों के लिए हितकारी व अहितकारी होने के कारण उन्हें स्वीकृति व अस्वीकृति मिलती
रही है। इनका पालन कराने के लिए किसी न किसी रूप में कई तरह के दबाव समूहों का सृजन
व गठन होता रहता है, जिससे राज्य व समुदाय के कानून एवं अनेक
नक्सलवादी तथा आतंकवादी संगठन भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनते बिगड़ते रहते
हैं।
प्राचीन काल में पहले व्यक्ति
शक्तिशाली होने पर यथा-सामर्थ्य अपना वर्चस्व व नेतृत्व रखता था, किंतु धीरे-धीरे वर्ण के आधार पर शीर्ष में ब्राह्मण व अंतिम
छोर में शूद्र रहा। समाज जब इस वर्ण व्यवस्था में भी संतुष्ट नहीं हुआ तो पेशेवर
जातियों का सृजन हुआ तथा उन जातियों में शीर्षस्थ ब्राह्मण तथा क्षत्रियों व
वैश्यों वर्ण तो यथावत रहे, किंतु शुद्र वर्ण में पेशों,
व्यवसायों, वर्णसंकरता व अन्य समकालीन कारणों से जातियों का
प्रगुणन हुआ। ये प्रगुणित जातियाँ शूद्र के वर्ण में सम्मिलित होती गई। पहले
ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के निर्धारित निषेधों को न
मानने पर उन्हें शुद्र वर्ण रूपी कूड़ा घर में शामिल किए जाने की प्रथा रही। वे ही
जातियां पवित्र या स्वच्छ मानी जाती रही हैं, जिन्हें
ब्राह्मणवर्णीय लोग पवित्र मानते रहे हैं। इनके बाद निम्नतम श्रेणी में अछूत व
अंतर अछूत वर्ग बने। अंतर अछूत का आशय कुछ नियत दूरी पर अछूतों के दिखाई देने से
ही अपवित्र हो जाने की रीति रही है।
कच्चे
खान-पान में पानी ही विभेद व अस्पृश्यता का प्रमुख कारण रहा,
जिसके कारण कच्चे खान-पान से लोग प्रायः दूर रहते थे, जबकि
पक्के खान-पान में गाय के घी से निर्मित खान-पान को गंगाजल के समान शुद्ध मानते थे।
स्त्रियों का विवाह भी उसी समूह में इसलिए क्या होता था कि खान-पान निर्मित करने
से संबंधित कार्य उनके द्वारा ही संपादित किया जावे, जिससे
समूहगत निषेध व्यवस्था कायम रहे तथा अन्य वर्ग इससे बचा रहे। व्यक्ति व समाज के
द्वारा निर्धारित अनैतिक कार्यों के करने के पाप का प्रायश्चित करने के पीछे
अनिष्ट की धारणा प्रबल थी। लोगों के पूर्व दूषित व्यवसायों के बारे में कल्पना कर
वर्तमान में उनके द्वारा दूषित व्यवसाय न किए जाने पर भी उनके प्रति दृष्टिकोण रहा।
धर्म के संबंध में मनुष्य ने जितना अधिक चिंतन किया, उतना अन्य किसी विषय पर नहीं किया।30
इतिहास साक्षी है कि जब भी सामाजिक परिवर्तनों के लिए परिस्थितियां तैयार हुई, तो उनमें धार्मिक नेतृत्व की प्रभुता से ही बदलाव आया और इसीलिए भारतीय
इतिहास के संदर्भ में सामाजिक परिवर्तन का दूसरा नाम धार्मिक परिवर्तन कहा गया।31
प्राचीनकाल में वेदों, उपनिषदों,
ब्राह्मण ग्रंथों, बौद्ध व जैन धर्मों,
महाकाव्यों, श्रोतसूत्रों, गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों, स्मृतियों व पुराणों तथा अन्यान्य
धर्म व नीति ग्रंथों में मानव जीवन के आचारों एवं व्यवहारों के पालन करने व पालन न
करने पर अनेक प्रकार के भय व दंडों का प्रचार-प्रसार देखने को मिलता है। मुस्लिमों
के आक्रमणों एवं दिल्ली व भारत के अन्य क्षेत्रों की बागडोर संभालने के बाद हिंदू-मुस्लिम
धर्म के संक्रमण से संबंधित मध्यकालीन भारत में कुछ प्रमुख धर्म ग्रंथों का निबंध
संग्रह का सृजन हुआ तथा प्राचीन धार्मिक नीतियों में आंशिक संशोधन करते हुए हिंदू
धर्म के स्थायित्व व गतिशील बनाए रखने के हर संभव प्रयास किए गये।
कालांतर में सामाजिक विकास के क्रम
में उपयोगिता व आवश्यकता को देखते हुए हिंदू धर्म में अनेक कुरीतियों का प्रभाव आमजनों
को महसूस होने लगा। फलतः मध्यकालीन भारत में संत विचारधाराओं का सृजन व प्रसार देश
के अन्य भागों में भी पड़ने लगा तथा संत बचनों को भरपूर जन-समर्थन मिलने लगा। इस
काल में मुसलमान शासकों द्वारा मूल इस्लाम के अनुयायियों एवं हिंदुओं व गैर
मुस्लिमों के बीच अलग-अलग सौतेला व्यवहार किए जाने के उदाहरण भी कम नहीं थे।
हिंदुओं के लिए अनेक प्रकार के जजिया आदि गैर मुस्लिम करों को आरोपित किया गया, जिससे अनेक लोगों ने अपने परिवारजनों के साथ
विवश होकर या हिंदू धर्म के भेदभाव से संबंधित कुरीतियों के कारण अपना धर्म
परिवर्तन करके इस्लाम धर्म के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करते गए। इतिहास
विद ईश्वरी प्रसाद कहते हैं कि भारतवर्ष में इस्लाम धर्म का प्रचार उसके सरल
सिद्धांतों के कारण नहीं हुआ, प्रत्युत वह राजभक्ति का धर्म
था, जो कभी-कभी विजित प्रजा में तलवार तथा दण्ड द्वारा
बलपूर्वक प्रसारित किया गया। भारतीय इतिहास का मध्ययुग मुसलिम पठान बादशाहों के
धार्मिक उन्माद एक प्रकार से अत्याचार तथा उग्र आचार का ज्वलंत उदाहरण है। दीन
इस्लाम के पवित्र पानी से काफिरों को शुद्ध करना ही उनकी नीति थी। जो कोई शुद्ध
धर्माचार का तनिक भी विरोध करता, वह तलवार के घाट उतारा जाता।32
अठारहवीं सदी की क्रांति ने समाज को
नीचे से ऊपर तक बदल दिया। सामंती संगठन को काफी तहस-नहस कर डाला व ऊंच-नीचे, धनी-निर्धन के अंतर को बहुत दूर तक मिटा दिया।
इसके अलावा हिंदुस्तान में कम से कम बारहवीं सदी से 19वीं
सदी के आरंभ तक किसी तरह की अन्य क्रांति नहीं हुई, जिसके
फलस्वरूप समाज में और राजकाज के ढंग में कोई खास तब्दीली नहीं हुई। जब 19वीं सदी में अंग्रेजों ने अधिकार जमाया, तो इनके पंडितों
ने हिंदुस्तान की सभ्यता-संस्कृति के समझने का प्रयत्न किया। औरंगजेब ने मुस्लिम
विधि के रूप में फतावा-ए-आलमगीरी ग्रंथ बनवाया। विलियम जोन्स ने संस्कृत सीखी, कालिदास की शकुंतला का अंग्रेजी अनुवाद कराया। वारेन हेस्टिंग्स को तो
अन्य भाषाओं के साथ फांसी का भी ज्ञान था। उसके द्वारा जेंटों ला के रूप में हिंदू
विधि का निर्माण कराया गया। अन्य खोजी अंग्रेजों ने इतिहास की तरफ ध्यान दिया।
उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के भेदों की अग्नि को खूब हवा दी। साम्राज्य का महल
तो धर्मों के पारस्परिक कलह की नींव पर ही खड़ा हो सकता था।33
सन् 1947 ई. में जब मुल्क का बंटवारा हुआ, तो बिहार और उत्तर प्रदेश के गांव में मुसलमानों की तादाद सात फीसदी थी।34
प्रत्येक जीव दैनिक क्रियाओं के
निवृत्त व उससे उपचारित भी होता रहता है। जो उत्पादन करता है वह कुछ अपशिष्ट
पदार्थ भी छोड़ता है। जो शक्ति प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी ग्रहण करता है, उससे प्राप्त ऊर्जा के अलावा अवशिष्ट पदार्थ
पृथक होकर बाहर निकलते हैं। यही अवशिष्ट पदार्थ द्रव, ठोस व गैस
के रूप में दुर्गंध भी प्रदत्त करते हैं, जो जीवों को
स्वाभाविक स्थिति के अनुसार बुरे व हितकारी लगते हैं। सभी वस्तुएं एवं विचार भले
ही सब के लिए हितकारी न हों, किंतु स्वाभाविक व स्थिति के
अनुसार किसी न किसी के लिए तो हितकारी लगते ही हैं। सही-सही व्यक्तियों के साथ भी
ईर्ष्या करने वाले मनुष्य पैदा हो जाते हैं और नेक आदमी के माध्यम से जिन लोगों का
अहित होता है, वही उसके विरोधी बन जाते हैं।35
संघर्ष तथा प्रतिस्पर्द्धा दोनों को पृथक करने वाली मौलिक सामाजिक प्रक्रियाएँ हैं।
यह दोनों ही असहयोग और विरोध के रूप में हैं, फिर भी उनमें
बहुत अंतर है। पार्क और बर्गेस के शब्दों में कुछ भी हो, प्रतिस्पर्द्धा
निरंतर और अवैयक्तिक होती है, और संघर्ष अनिरंतर और
व्यक्तिगत होता है।36
व्यक्ति के विकास में प्रकृति के
साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पशु-पक्षियों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। व्यक्ति ने परिवार
की रचना की तथा परिवार से समाज बना। समाज को गतिमान रखने के लिए व्यवसाय बने।
सामाजिक व्यवस्थाकारों ने शूद्र वर्ग को भी पिछड़े लोगों की श्रेणी में संरक्षित
किया, जिससे पृथक-पृथक अन्यान्य कारणों
से वैश्य वर्ण वर्ण-वर्ग, कृषि व पशुपालन वर्ग या शिल्पवर्ग
आदि से संबंधित नए-नए समूहों का सृजन व गठन हुआ। इन व्यवसायों में कुछ अशोभनीय या
अपवित्र कार्यों वाले व्यवसाय भी सृजित हुए, जिनके
कर्ताधर्ताओं को अशुद्ध, अपवित्र या अस्पृश्य समुदाय का नाम
दिया गया। धीरे-धीरे शूद्रों से अस्पृश्य समुदाय पृथक होते गए कालांतर में वे
अनुसूचित जाति कहलाये।
वास्तव में जो रीतियाँ समाज के
अधिकांश लोगों को अच्छी लगती हैं, उन्हें सामाजिक
स्वीकृति मिलती है,
किंतु जो रीतियाँ समाज के अधिकतर लोगों को किसी न किसी रूप में अप्रिय लगती
हैं तथा लोगों के माध्यम से उन्हें समाज छोड़ना चाहता है,
जिसे इन रीतियों को हम कुरीतियों की संज्ञा देते हैं। इनको जिस प्रकार से सामाजिक
स्वीकृति मिलती है, उस प्रकार से इनके मुक्ति नहीं होती, क्योंकि इनको समाप्त करने को व्यक्ति तथा समाज रूढ़िवादी विचारधारा का
होने के कारण सहमति नहीं प्रदान करता। ऐसी अन्य कुरीतियों की भांति एक कुरीति
जातिगत अस्पृश्यता भी है, जिसमें व्यक्ति समूह या समुदाय
अन्य व्यक्ति या संबद्ध समुदाय को भौतिक रूप से छूने से अपवित्र महसूस कर लेता है।
यही स्थिति तब और चिंतनीय हो जाती है, जब कुछ निर्धारित दूरी
के अंदर आ जाने पर ही लोग अपवित्र हो जाते हैं।
अस्पृश्यता और दृश्यता देश के अधिकांश भागों में
एक शास्त्रीय सिद्धांत मात्र था, जिसका पालन
अत्यंत कठिन था, क्योंकि सारे कृषि और व्यापार के कार्य तथाकथित
असाध्य जातियों के सहारे होते थे तथा शिल्प और अधिकांश कलाएं भी उन्हीं के हाथ में
थीं। शूद्रों की स्थिति पर विचार करने पर स्पष्ट होता है, कि
जैन, बौद्ध, वैष्णव आदि संप्रदायों के
शुद्धिवाद और कृच्छाचार के कारण शूद्रों की सामाजिक स्थिति और गिर गई थी। यह एक
बहुत बड़ा ऐतिहासिक आश्चर्य है, कि जिन धर्मों के प्रवर्तकों
ने मानव मात्र की क्षमता का उपदेश दिया, उन्हीं के
अनुयायियों के शुद्धि के नाम पर बहुसंख्यक मानव को मानवेतर स्थान दिया। वर्ण-जाति
व्यवस्था में सबसे ऊँचे पद पर ब्राह्मण और सबसे नीचे होते हैं। इससे उनकी ऊँच-नीच सामाजिक
व्यवस्था को संस्तरण कहते हैं। हिंदुओं में यह संस्तरण या ऊँच-नीच का भेद जन्मजात
होता है। कोई व्यक्ति अपने इस संस्तरण को अपने आप परिवर्तित नहीं कर पाता है।
जहाँ तक अस्पृश्यता के उद्भव की परिस्थितियों का
प्रश्न है, इसके संबंध में दुर्गंध, छुआ-छूत की बीमारियों व खाने-पीने की जुठी वस्तुओं से बचाव करके अपने को
स्वच्छ, स्वस्थ व सुरक्षित रखने की धारणा के कारण इस कुप्रथा
को बढ़ावा मिला, जो कालांतर में जातिगत व समुदायगत रूप में
उक्त कारकों के न होने पर भी धीरे-धीरे मजबूत होती गयी। आज भी भारतीय समाज के अधिकांश
ग्रामवासियों में वर्ग व जातिगत विभेद के कारण एक दूसरे को छूने, छुआ हुआ खाना खिलाने, खान-पान के बर्तनों के प्रयोग
तथा एक दूसरे को पास बिठाने मंदिर-मठ, घर-द्वार घाट-तालाब, गांव व रास्ते के आवागमन तक में अवांछनीय घृणा व दूरी बनाए रखने के
प्रयास के कारण भारतीय समाज की एकता व एकरूपता पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। समाज
के सबसे अंतिम सोपान के लोग अपनी पहचान अन्त्यज या अस्पृश्य जैसी पृथक का प्रजाति
के रूप में महसूस करते रहते हैं। यह एहसास कई कारणों से या तो उन्हें खुद याद रहता
है या उन्हें लोग कराते भी रहते हैं। सामाजिक, आर्थिक व
राजनैतिक आदि प्रयासों से यदि मानसिकता नहीं बदली तो बदला क्या? ऐसा प्रतीत होता है, कि पहले आदमी निकृष्ट योनियों
में जन्म लेने की दैवीय स्वीकृति समझकर वह स्वयं
अन्य लोगों के साथ समाज के निर्धारित जातीय निम्नता उच्चता के मानकों को सहर्ष
स्वीकार करता था, किंतु पीड़ित बदलते परिवेश के कारण समाज
में अब अस्पृश्यता की सहर्ष स्वीकृति न होने से अंतर्द्वंद्व एवं प्रतिकार की
छटपटाहट महसूस करने लगा है। आवश्यकतानुसार तथाकथित निम्न लोग अपनी जातिगत पहचान छुपाकर
उच्चवर्गीय नाम व नामों के उच्च वर्ग के बाद टाइटिल प्रयोग करने लगे हैं, क्योंकि सम्मान पाना तो सबको अच्छा लगता है, किंतु
सम्मान देना दुरूह कार्य प्रतीत होता है। आजकल शिक्षित व नौकरी प्राप्त लोग एक
दूसरे की धर्म व जाति अवश्य जानना चाहते हैं। लोग उनकी व्यक्तिगत पत्रावली तक
देखकर पूरा पता लगाने की इच्छा रखते हैं।
भारत में जितने देवी-देवता होंगे, संभवत: उतनी या उनसे अधिक जातियों व उपजातियों
की कल्पना की जा सकती है। देवी-देवताओं के प्रति भी बड़े और छोटे होने या उनमें
स्तरीकरण की धारणा आम लोगों में विद्यमान रहती है। हिंदुत्व तत्वज्ञान सभी जीवों
में एक ही आत्मतत्व मानता है, किंतु अपने ही समाज के अधिकांश
लोगों को जाति व अस्पृश्यता की परिधि से पृथक कर उनके लिए सार्थक एकता व समरसता
नहीं कायम कर पा रहा है। ऐसा माना जा सकता है, कि विकसित
देशों में व्यक्ति महत्वपूर्ण है, किंतु भारत में प्रायः
परिवार व जाति अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु रहा है। अधिकांश भारतीय इन्हीं की संतुष्टि
के प्रयास में संपूर्ण जीवन अर्पित कर देते रहे हैं। यहाँ धर्म व जातियों के नाम से
सामान्यतः व्यक्ति के कद की प्रस्थिति स्वयं प्रकट कर देते हैं। इतनी तरक्की व अंतर्जातीय
विवाहों के बाद भी व्यक्ति का धर्म व उपजाति का पद सोपान जीवनपर्यंत नहीं
परिवर्तित होता। अधिकांश व्यक्ति जाति के इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाते रहते हैं। वे
इसके आगे सोचने-समझने को तैयार ही नहीं होते।
विद्या की विभिन्न शाखाओं तथा
अलग-अलग व्यवसायों और से सम्बद्ध जाने कितने विद्वानों ने पारंपरिक भारतीय समाज के
अध्ययन प्रस्तुत किए हैं।39 वैद्य के कार्यों को भी पहले हेयता की दृष्टि से लोग
देखते थे। वर्तमान में चिकित्सकों द्वारा स्वास्थ्य बेहतर करने व जल्दी स्वास्थ्य
लाभ पाने की सलाह के रूप में अब अधिकांश लोग अंडे व माँसाहार भी लेने लगे हैं, इससे भी सामाजिक विभेद की भावना में कुछ कमी
आयी है। इसी प्रकार शासकीय व सामाजिक प्रयास भी इस दिशा में सार्थक योगदान दे रहे
हैं। वैश्वीकरण के दौर में विश्व के अन्य देशों की बराबरी करने हेतु आर्थिक पहलुओं
के विकास के साथ भारतीय सामाजिक ताने-बाने में समाहित अस्पृश्यता एवं अन्य
अतार्किक कुरीतियाँ मिटाकर यथाशीघ्र उपेक्षित समाज को मुख्यधारा में लाने हेतु
सच्चे मन से कारगर सर्वांगीण प्रयास करने होंगे। पिछली शताब्दियों के सामाजिक और
राष्ट्रीय इतिहास को देखने से ज्ञात होता है, कि जाति प्रथा
देश और समाज के लिए उत्थानपरक अच्छे परिणाम नहीं लायी।
कहा जाता है,
कि साहित्य, संगीत व कला विहीन व्यक्ति पशुओं के समान होता
है। यह उक्ति एक लंबे अरसे से हम सब दोहराते हुए चले आ रहे हैं, किंतु महत्वपूर्ण धार्मिक साहित्य, भाषा व कर्मकांडों
में पहले से ही तथाकथित उच्च वर्ग का एकाधिकार निरंतर चला आ रहा है। अन्य वर्गों
को इनसे वंचित रखने के लिए कठोर नियम रहे हैं, किंतु संगीत व
कला दो ऐसे विषय क्षेत्र हैं, जहाँ निम्नवर्गीय या सभ्यता से
पृथक दबे-कुचले लोगों का एकाधिकार रहा है। कारीगरी के काम करना व वाद्ययंत्र बनाना
व प्राकृतिक धुने निकालना व उनसे मनोरंजन करना उनको विरासत में मिला और लगातार
वंशानुगत कार्य करने से ये लोग कला व संगीत विद्या में पारंगत होते गए। चूंकि
संगीत व कला में काफी समय पहले तक पढ़ाई-लिखाई व धन-संपदा की आवश्यकता नहीं थी। यह
प्रतिभा एकांत प्रकृति की गोद में फुरसत से ही प्राप्त की जा सकती थी। इन विद्याओं
का कला कौशल का आरंभ एवं विकास आदिम, उपेक्षित, बहिष्कृत या अस्पृश्य समुदायों के पूर्वजों के द्वारा स्थानीय भाषाओं में
किया गया। इन कलाओं के प्रस्तुतीकरण में उनके भाव प्रकट होते रहे हैं। उत्खनन से
प्राप्त प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय पुरातात्विक सामग्रियों में की गई कलाकृतियों
एवं कारीगरी में शिल्पवर्गीय समाज की प्रमुख भूमिका रही है,
जबकि उस काल में अधिकांश श्रमिकों को गुलाम बनाकर अधिक कार्य लेते हुए समय बद्ध व
गुणवत्ता सहित राजा के कारिंदे जोखिम भरे व मधु कार्य प्रायः बिना आराम दिए कराते
रहे हैं।
वर्तमान काल में जब परिवर्तन परिवेश
ने इन्हें किताबी शिक्षा व अन्य ज्ञान-विज्ञान सीखने का मौका मिला, तो
साहित्य की खोजमूलक प्रवृत्ति व शासकीय प्रयासों से संगीत व कला की क्रमबद्ध
अध्ययन विधियाँ प्रचलन में आयी, जिससे इस कला-कौशल को प्रकट
संवर्द्धित करने का एक बेहतर आधार मिला। हम आज साहित्य के धरातल पर इन्हें रखकर
गर्व महसूस कर रहे हैं एवं चारों और विभिन्न प्रकार के मनोरंजन व संचार के
माध्यमों में यथा रेडियो, टेलीविजन,
सिनेमा, कंप्यूटर आदि में कला और संगीतमय वातावरण देख कर
प्रफुल्लित हो रहे हैं, उसकी जड़ में वही उपेक्षित वर्ग रहा
है। वैदिक साहित्य को बाह्य वर्गों के लिए सुनने की मनाही की गई, जबकि उनके संगीत व कला का रसास्वादन उच्चवर्गीय समाज ने खूब लिया। अनेक प्रकार
की कारीगरी व शिल्पकारी भी इन्हीं के द्वारा की तथा विकसित की जाती रही है।
कालांतर में इस्लामिक शासनकाल में मुस्लिमों के द्वारा भी साहित्य व संगीत
संबर्द्धन एवं दरबारी शोभा बढ़ाने हेतु काफी महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। यदि
साहित्य में संगीत व कला को पृथक कर दिया जाए, तो साहित्य
रूखा व निश्तेज हो जाएगा।
शब्दों को भावों व भावों को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, किंतु भावों को ध्वनित अवश्य किया जा सकता है।
कला व कलाकार तथा संगीत व संगीतकार भाषा एवं भावों की प्रस्तुति के सशक्त माध्यम
हैं। आज संगीत में घरानों के संगीत व कला मंचों का अपना पृथक महत्व दिखाई दे रहा
है। ललित कला के अंतर्गत मुख्य रूप से 5 कलाएं तथा चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला,
काव्यकला व संगीतकला-भावों की अभिव्यक्ति के प्रमुख विधाएं हैं। वर्तमान में कला
को दो भागों यथा दृश्य कला व अदृश्य कला अथवा प्रदर्शन कला के रूप में विभाजित
करके देखा जाता है। अच्छी कला व कर्णप्रिय संगीत से सभी को सुख मिलता है, किंतु यहां कलाकारों, संगीतकारों, उनके समुदायों व उनके पूर्वजों को अनेकों सामाजिक निर्योग्यताओं व दुखों
की पीड़ा का दंश झेलना पड़ा है तथा इनसे संबंधित समुदायों को आज भी प्राय: किसी न
किसी रुप से उपेक्षित रखा जा रहा है। यहां तक कि अभी भी इन्हीं शिल्पी समुदायों के
द्वारा निर्मित घरेलू वस्तुओं को हिंदू रीति-रिवाजों तथा संस्कारों में प्रयोग
किया जाता है।
जाति व्यवस्था में शुद्ध बने रहने की व स्तरीकरण
की भावना अत्यंत प्रबल प्रभाव रखती रही है। वर्तमान समाज में भी किसी स्त्री को
पुरुषों के समूह में और तथाकथित उच्चवर्गीय समूह के साथ अवर्ण या अस्पृश्यों को
बराबरी के दर्जे में देखकर आम लोग प्रकट व अप्रकट रूप से प्रसन्नता नहीं महसूस
करते हैं। गरीबों, वंचितों व उपेक्षितों के लिए
संचालित विकासकार्य या कार्ययोजना के क्रियान्वयन के वास्तविक कार्यधर्ताओं के ऊपर
पर्यवेक्षण करने वाले इतने अनुउत्पादक पहरेदार लगे रहते हैं,
कि उन लोगों को मिलने वाले लाभ से अधिकाधिक धनराशि योजनाओं को क्रियान्वित करने
वाले पहरेदारों पर खर्च करना पड़ता है अर्थात काम करने वालों से ज्यादा काम का
पर्यवेक्षण करने वालों पर खर्च हो रहा है।
वास्तव में अक्षम व्यक्तियों को
छोड़कर जिस व्यक्ति पर जितना व्यय हो रहा है,
कम से कम उतना या उससे अधिक मूल्य का कार्य-योगदान करके उसे अदा करना चाहिए, अन्यथा अक्षम व व्यवस्था चलाने वालों का खर्च तो भी राज्य को ही वाहन
करना पड़ेगा। महंगाई बढ़ने के पीछे भी काफी हद तक अकर्मण्यता व उक्त कारणों को
जिम्मेदार माना जा सकता है। पराधीन किसी प्रकार से न तो स्वयं और ना ही समाज को
सुख प्रदान कर सकता है, उसे आश्रित बनाना बहुत उचित नहीं है।
मनुष्य की तरक्की के लिए धन व अनुदानों से अधिक अयोग्य व असमर्थ लोगों को योग्य व
स्वावलंबी बनाने हेतु और अधिक समुचित प्रयास मूल स्तर पर किए जाने की आवश्यकता है, अन्यथा अकर्मण्यता बढ़ती जाने की प्रबल संभावना से इंकार नहीं किया जा
सकता। हम सभी लोग प्रकृति व देश से अपने विकास के लिए सभी प्रकार की जरूरतें पूरी
कर रहे हैं, किंतु बदले में उसके किए गए कार्यों के ऋणों का
ब्याज भी यथोचित रूप से नहीं दे पा रहे हैं, यही हाल कमोबेश
वैश्विक प्राप्तियों का भी है।
कहा जाता है कि बिना ईश्वर की मर्जी के एक पत्ता
भी नहीं हिल सकता, किंतु यह भी मान्यता है कि ईश्वर
उसी की मदद करता है, जो स्वयं अपनी मदद करता है। अपनी सफलता
एवं येन-केन प्रकारेण अपना फायदा पाने के लिए दूसरों का किसी प्रकार से नुकसान
करना कहां तक न्यायोचित है? अधिकांश लोग ऐशो-आराम एवं
वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों की भ्रामक ठेकेदारी को लेकर अधिकाधिक संसाधन अपने
परिवार व स्वजातीय समाज के लिए जुटाने में अपनी पूरी ऊर्जा खपाते रहते हैं। वास्तव
में हमें अपने अस्तित्व व व्यक्तित्व को देखते हुए समाज के पीड़ित, कमजोर, उपेक्षित, बेसहारा तथा
अक्षम लोगों की सुख-सुविधा तथा रक्षा के कारगर प्रयास और कार्यों में अपनी ऊर्जा खपानी
चाहिए। जब समाज में सामाजिक एकता का अनुमत जाग्रत होता है,
समाज एक जीव होता है, तब किसी भी हत्या की, तो भी वह आत्महत्या ही होती है और हम आत्महत्या कैसे करें, क्या करें? जहां द्वैत है, वहां
दुश्मनी हो सकती है जहां अद्वैत है, वहां दुश्मनी के लिए जगह
नहीं रहती।40
अक्षम
होने वाले, उनके आर्थिक उत्पादन में सहायक
ना हों, उन्हें भोजन कैसे दिया जाय या व काम कैसे लिया जाए।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती वहां के लोगों के परिश्रम, कर्मशीलता, काम के प्रति ईमानदार सोच-लगन पर निर्भर
करती है। देश में विकास की चमक अगर फीकी दिखने लगती है, तो
इसका मतलब है, कि विकास के किले हवाई महल की तरह है, जो हलके झोंके से ही भरभरा कर गिर सकते हैं। ठोस मजबूत अर्थव्यवस्था के
लिए हर नागरिक के हाथ में काम जरूरी है। वास्तव में प्रत्येक चलायमान या गतिमान
तत्व में विकृति या खराबी आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, अतः
उसका सुधार समय रहते करना ही पड़ेगा, अन्यथा उसके और भागों
में भी खराबी आ जाएगी।
जातिगत कट्टरता, अस्पृश्यता व सामाजिक दुराव अतुल्य भारत की
अतुल्य सामाजिक बुराई है। आप बड़े शहरों से जितना अधिक दूरस्थ ग्रामीण अंचलों व
पिछड़े ग्रामों में जाते जायेगे, उतना ही इसका रुप और अधिक
विकराल होता जाता है। परतंत्र भारत के कुशल-रक्षकों के द्वारा अपनाई गई काफी हद तक
इस्लामिक कूटनीति का अनुसरण करते हुए अपनी ब्रिटिश नीति से गैर ईसाइयों पर
उपनिवेशवाद की नीति तथा साम्राज्यवाद की नीति के माध्यम से पराधीन बनाकर शासन किया।
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए सभी भारतीय एकजुट होकर देश के अग्रकर्ताओं
की अगुवाई में अंग्रेजों अर्थात विदेशियों व उनके कानून कर विरोध कर रहे थे, किंतु आज हम अपने ही देश में लागू कानूनों व नियमों की अवहेलना व विरोध
जाने व अन्जाने रूप में प्रायः धड़ल्ले से कर रहे हैं, जो
चिंतनीय है। उस समय देश के सभी वर्गों के लोगों ने जब अपनी कुर्बानी दी, तब हम 15 अगस्त 1947 ई.
को भारत को स्वतंत्रता दिला पाए, किंतु बिना
भेद-भाव के संपूर्ण विश्व के आधार पंचतत्व हैं, फिर भी
प्राचीनकाल से अब तक जातीय कट्टरता व अस्पृश्यता या छुआ-छूत एवं स्त्री-पुरुषों के
बीच भेद-भाव, उपेक्षा व पूर्वाग्रह का दृष्टिकोण मिटाने के
लिए शायद उतने कारगर व सच्चे मन से हम सभी के द्वारा प्रयास नहीं किए गए। इस
समस्या के सुधार के परिप्रेक्ष्य में 12-13 जनवरी 2012
को मध्यप्रदेश के भोपाल नगर में दलित बुद्धिजीवियों का एक महासम्मेलन
भी आयोजित किया गया था, जिसमें 21 सूत्रीय
दलित एजेंडा पर मोहर लगाई गई। इस एजेंडे को भोपाल घोषणा-पत्र भी कहा जाता है।
गुलामी को परिभाषित करते हुए उसमें कर्जग्रस्त, बंधुआ मजदूरी, जबरन विवाह, मानव तस्करी, आदि
खरीद -फरोख्त के लिए अपहरण, वेश्यावृति के लिए कैद जीवन, बिना वेतन मजदूरों और घरेलू नौकरों के शोषण जैसी गतिविधियों को शामिल
किया गया है।
पवित्रता और शुद्धता व समानता के
भाव को अंतर्मन में होने चाहिए, किंतु
प्रायः हमारा बाह्याडंबर में अधिक विश्वास होता जा रहा है। जहां तक स्त्री-पुरुष
समानता का बिंदु है; वहां पर स्त्री-पुरुष दोनों को एक दूसरे
के स्थान पर खड़े होकर सोचना होगा। वासना के बहाव में न बहकर ही स्त्रियां
स्वतंत्र हो सकती हैं। स्त्री सुरक्षित होने के बजाय स्वरक्षित होनी चाहिए। स्त्री
को देवी मानने की बात व्यवहारिक रूप से बहुत सार्थक सिद्ध नहीं होती। मालाबार में
उत्तर भारत की भांति भाषा में लिंग भेद नहीं है, अर्थात जाता
है या जाती है कि भाषा में वहां प्रायः कोई अंतर नहीं समझ में आता, जैसा कि सामान्यत: हिंदी और अंग्रेजी में दिखाई देता है। प्रायः कुछ
लोगों के द्वारा साहित्य में छेड़-छाड़ कर अस्पृश्य व स्त्री पर बहुत सारे बंधन
बाद में थोपे गए। स्त्री के शरीर में कई जगह छेद करके आभूषणों से सुसज्जित कर उसे
बोझ में बांध दिया जाता रहा है। समाज में जिस मात्रा में पतिव्रता होने की धारणा
है, उसी अनुपात में पत्नीव्रता की भी धारणा होनी चाहिए। भारत
में मठ एवं मंदिरों में प्राय: पुरुष साधुओं का ही प्रधान पद रहा है। शनि मंदिर
शिंगड़ापुर मुंबई में 400 वर्ष पहले से उसकी चौखट में भी
महिलाओं का प्रवेश वर्जित था, किंतु दिनांक- 8 अप्रैल, 2016 को माननीय मुंबई
उच्च न्यायालय के आदेश के बाद वहां पर महिलाओं को प्रवेश मिला। हरिद्वार मेला में
साधुओं की भांति साध्वियों को भी अखाड़ों का मुखिया तथा पृथक शाही स्नान को लेकर
विवाद व समाधान हुआ है।
वर्तमान काल में ब्राह्मण व क्षत्रिय दो वर्णों के
अपने-अपने गोत्र भले हों, किंतु पिछड़ी जाति व अनुसूचित
जाति व जनजातीय समुदायों को निर्धारित जातिगत नामों से संबोधित किया जाने लगा तथा
वर्ग लिखने के साथ शासकीय व अशासकीय संदर्भों में उनकी उपजाति को भी अंकित किया
जाना आवश्यक समझा गया। यदि मानसिक समझ है मानवीय एकता की हो तथा सामाजिक विभेद न
हो, तो मन में कुंठा न होने से अधिक स्वस्थ मानसिक शक्ति से
वह कार्य करेगा व प्रसन्न भी रहेगा। लोगों का कथन है, कि आज-कल
जाति तथा अस्पृश्यता व उपेक्षा का विचार शिक्षित व नगरीय क्षेत्रों में बहुत कम हो
गया है, किंतु इस संबंध में लगता है,
कि यदि उक्त लोग विभिन्न प्रकार की जातियों के बड़े समूहों के पृथक-पृथक रूप में
रहकर जीवनयापन कर रहे होते, तो वहां भी सामाजिक विभेद की
स्थिति कमोवेश ग्रामीण परिवेश की तरह ही दिखाई देती। सक्षम जीव या व्यक्ति अक्षम
को अपने वश में करने के उचित या अनुचित प्रयास करता रहता है। किसी भी सक्षम के
समक्ष अक्षम जितना अधिक झुकते हैं, उतना ही सक्षमों की अधिक
गरिमा बढ़ती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में इसी गरिमा को कायम रखने एवं
वृद्धि करने में लगा रहता है। नैतिक लोग जीवन भर अनेक परीक्षाओं से गुजरते रहते हैं।
प्राकृतिक रूप से विचारों के आदर्श समाज को नई व सकारात्मक दिशा प्रदान करते हैं, किंतु राज्य के भौतिक कानून व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण विचारों के सभी
आदर्श लागू करने में शायद समर्थ नहीं हो पाते।
यहां यह कहना प्रासंगिक है, कि जातिगत अस्पृश्यता व विभेद के विरुद्ध
एकजुटता का प्रदर्शन अब तक आवश्यकता के अनुरूप नहीं हो पाया,
अन्यथा अंग्रेजों की गुलामी की भांति विभेदजनक कुरीतियां भी विनष्ट होकर बहुत पहले
काल कवलित हो जातीं और हमारा विश्व में अप्रतिम स्थान और होता। ‘वसुदधैव कुटुंबकम्’ ही हमारा मूल मंत्र है। सभी के
साथ न्याय एवं परोपकार करना ही मनुष्य का परम धर्म है, तभी
संपूर्ण मानवता का कल्याण संभव है। यहां यह एक विचारणीय बिंदु है, कि जनजाति के रूप में पहले अधिकांश समूह रहना शुरू किए होंगे, तब ये स्थायी तौर पर शुद्रों या अस्पृश्यों के प्रति दीन-हीन भावना पनपने
के पीछे क्या औचित्य था? क्योंकि पहले तो जंगलों में मनुष्य
का निवास था। यहां जिन लोगों में जातिगत अस्पृश्य उपेक्षित समाज की आवाज को गति दी
है, उन्हें दलित चेतना, दलित लेखक दलित
साहित्यकार के नाम से पहचान मिलती जा रही है। क्या इन कथनों के प्रचलन से इन वंचितों
को भारतीय समाज से पृथक समूह के रूप में प्रकट करने की फिर परंपरा या कुरीति नहीं
बनती जा रही है? आपसी मानवीय रिश्तों में मधुरता व समरसता
बढ़ाने व बनाए रखने हेतु हर पीढ़ी में तथा हर स्तर पर पूर्वाग्रह छोड़कर सच्चे व
निरपेक्ष मन से समयानुसार समाज की आवश्यकताओं व उपयोगिताओं के अनुसार सुधार या
परिवर्तन करते रहना स्वस्थ समाज बनाए रखने के लिए आवश्यक है। कन्नड़ संत बसवेश्वर
कहते हैं, कि कोई वृत्ति जाति-सूचक या अगौरव-सूचक कदापि नहीं
होती, न होनी चाहिए सभी वृत्तियां जीविकोपार्जन या जीविका का
साधन है सभी वृत्तियां जीवनोपाय हैं व कर्मशीलता के कारण गौरववान होती हैं। शरीर
से किया जाने वाला परिश्रम ‘कायक’ है।
अतः वृत्ति को गौरव नहीं कहना चाहिए। इस प्रकार वृत्ति से जुड़ी जातियों एवं
अस्पृश्यता व ऊँच-नीच वृत्ति की परिधि में सीमित करना व्यक्ति के स्वावलंबन व
स्वतंत्र जीवन जीने में बहुत बड़ी मानसिक चिंता है क्योंकि परान्न- भोगी से बदतर
जीवन दूसरा नहीं है। भारत अपार संभावनाओं वाला अद्वितीय ऊर्जावान देश है। जीवन में
सबका साथ सर्वांगीण विकास का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु सच्चे अर्थों में हम सबको
निरपेक्ष भाव से एकसाथ, एकजुट, दृढ़संकल्पित
व कर्मशील होकर कार्य करना होगा।
संदर्भ
सूची:-
1.राजकुमार
राय, असामान्य मनोविज्ञान, वाराणसी, 1967, पृ.-8-9
2.आर
सिंह, जीवन की कहानी, विज्ञान शिक्षा संस्थान, गाजियाबाद, 2002, पृ.-29
3.मनुस्मृति
9.186, नाथ रवीन्द्र, धर्मशास्त्रीय विधि पद्धति, इलाहाबाद, 1989, पृ.-37
4.हाटिंग्टन
ई. प्रिंसिपल्स ऑफ ह्यूमन ज्योग्रैफी,
1920, न्यूयार्क 1949, पृ.-7
5.चतुर्वेदी, नरेश चंद्र, हिंदी
साहित्य का विकास और कानपुर, कानपुर,
1957, पृ.-6
6.हाटिंग्टन
ई. प्रिंसिपल्स ऑफ ह्यूमन ज्योग्रैफी,
1920, न्यूयार्क 1949, पृ.-7
7.कुलश्रेष्ठ, जयदेव, सूफी महाकवि जायसी, अलीगढ़, 1966, वातावरण, पृ.-6
8.राजाराम
शास्त्री, दर्शन,
धर्म तथा समाज, वाराणसी, 1994, पृ.-128
9.अमर्त्यसेन, भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास
और संस्कृति, दिल्ली, 2006, पृ.-118
10.राजाराम
शास्त्री, दर्शन,
धर्म तथा समाज, वाराणसी, 1994, पृ.-71
11.हार्लो
शेपली, तारे और मनुष्य, अनु. निहालकर सेठी, लखनऊ, 1967, पृ.-180
12.ब्यूटनर-यानुश, मानव की उत्पत्तियाँ,
अनु. ब्रजराज किशोर शुक्ल, दूसरा भाग,
लखनऊ, 1947, पृ.-63
13.सुरेन्द्र
कुमार श्रीवास्तव, भारतीय समाज और संस्कृति, वाराणसी, 1985, पृ.-183
14.हिटलर, अडोल्फ़, मेरा
संघर्ष-हिटलर की आत्मकथा, अनु. अनिल कुमार, मेरठ, 2010, पृ.-145
15.अनामिका, स्त्री का मानचित्र,
दिल्ली, 1999, पृ.-9
16.आर.के.टण्डन, मनोविज्ञान के मूल आधार,
आगरा, 1975, पृ.-427
17.नर्मदेश्वर
प्रसाद, मानवव्यवहार तथा सामाजिक व्यवस्था, सम्मेलन
भवन, पटना, 1973,
पृ.-174
18.राजाराम
शास्त्री, दर्शन,
धर्म तथा समाज, वाराणसी, 1994, पृ.-128
19.उपाध्याय, भगवत शरण, सांस्कृतिक
भारत, पृ.-8,
20.सिंह, धर्मराज, अरूणाचल की आदि
जनजाति का समाज भाषिकी अध्ययन, नई दिल्ली, 1990, पृ.-17
21.पाण्डेय, राजबली, हिंदी साहित्य का
वृहत इतिहास, प्रथम भाग, सभा, काशी, 1957, पृ.-6, 7
22.राजेन्द्र
कुमार शर्मा, रचना शर्मा, समाज मनोविज्ञान, नई दिल्ली,
1998, पृ.-299
23.त्रिपाठी, शंभूरतन, भारतीय समाज एवं
संस्कृति, कानपुर, 1963, पृ.-57-59
24.भारत
में समाज, धर्मवीर महाजन, दिल्ली, 2005, पृ.-87
25.मानव
भूगोल, सूरजदेव बसंत, नई दिल्ली, 2005, पृ.-205
26.मौर्य, एस.डी. सामाजिक भूगोल,
इलाहाबाद, 2004, पृ.-61-67
27.ताराचंद, भारतीय संस्कृति पर इसलाम का प्रभाव, अनु. सुरेश मिश्र, नई दिल्ली,
2006, भूमिका
28.सुरेन्द्र
सिंह, सुषमा मल्होत्रा, समकालीन भारतीय समाज, वाराणसी, 1988, पृ.-5
29.जायसवाल
सुवीरा, वर्ण-जाति व्यवस्था, अनु. आदित्य नारायण सिंह, नई दिल्ली, 2009, पृ.-44
30.त्रिपाठ, शंभूरत्न समाजशास्त्रीय विश्वकोष, कानपुर, 1960, पृ.-115
31.जैन, मोहन चंद, संस्कृत महा
काव्यों में भारतीय समाज, दिल्ली, 1989, पृ.-प्राक्कथन
32.देवी
प्रसाद मुं भागवत सम्प्रदाय, ले. बल्देव उपाध्याय, काशी, 1953, पृ.-237
33.सिन्हा
सावित्री, स्नातक विजयेन्द्र अनुसंधान की
प्रक्रिया, दिल्ली, 1960, पृ.-157-158
34.हबीब
मोहम्मद, भारतीय इतिहास का आरंभिक मध्यकाल, सं. इरफान हबीब, दिल्ली, 2010, पृ.-194
35.जेम्स
टाड़, राजस्थान का इतिहास, अनु. केशव कुमार ठाकुर, इलाहाबाद, 1965, पृ.-263
36.राजेन्द्र
कुमार शर्मा, रचना शर्मा, समाज मनौविज्ञान, नई दिल्ली,
1998, पृ.-338
37.पाण्डेय, राजबली, हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास, प्रथम भाग, काशी, 1957, पृ.-104,1403
38.त्रिपाठी, शंभूरतन, भारतीय समाज एवं
संस्कृति, कानपुर, 1963, पृ.-133
39.जायसवाल, सुवीरा, वर्ण-जाति
व्यवस्था, अनु. आदित्य नारायण सिंह, नई
दिल्ली, 2009, पृ.-44
40.अहिंसा, काका साहेब कालेलकर,
दिल्ली, 1989, पृ.-28
41.महाजन, धर्मवीर, भारत में समाज, दिल्ली, पृ.-100
42.लेख-विशेष
गुप्ता एसो, प्रोफेसर समाजशास्त्र, हिंदुस्तान दैनिक समाचार पत्र, अलीगढ़ संस्करण,19 नवम्बर, 2013, पृ.-12
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें