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प्रेमचंद का जीवन एवं व्यक्तित्व
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      प्रेमचंद का जीवन एवं व्यक्तित्व    उर्मिला शर्मा ,  हज़ारीबाग ,  झारखण्ड        बहुमुखी प्रतिभा व सादगी सम्पन्न असाधारण व्यक्तित्व के धनी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई , 1881 में ' लमही ' नामक गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उस समय भारत परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था तथा स्वतंत्रता की इच्छा भारतीयों दिलों को आंदोलित कर रही थी।    प्रेमचंद का जीवन परतंत्र भारत में जीने वाले एक आम आदमी की तरह ही था। उनके व्यक्तित्व की यही सादगी उनके साहित्य में भी सर्वत्र दिखाई पड़ती है। पिता अजायबलाल मध्यम वर्गीय किसान थे जो कृषिकर्म से जीविकोपार्जन में भी असमर्थ थे। आर्थिक तंगी तो थी ही किन्तु प्रेमचंद के जीवन का दुःखद पहलू तब शुरू हुआ जब सात वर्ष की उम्र में माँ का देहांत हो गया। आगे चलकर प्रेमचंद को विमाता के उपेक्षा का शिकार भी होना पड़ा। उन्होंने अपने दुःख का साथी उर्दू साहित्य को बना लिया। इसी अध्ययन ने उनके लेखन के नींव का कार्य किया। 15 वर्ष की उम्र में विवाह हुआ जो असफल रहा। जब वे 17 साल के थे तब पिता की भी मृत्यु हो गयी जिससे परिवार चलाने का भार उनपर आ गया। इस विकट परिस्थि...
आज से बढ़ने लगी है ठंढक...
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      जितेन्द्र सिंह     पीएचडी/एम फिल/ नेट , जे आर एफ     गाँव- आलिंगुड़ बोलबा     सिमडेगा ,  झारखंड       आज से बढ़ने लगी है ठंढक ...     आज से बढ़ने लगी है ठंढक   मन बहुत हर्षाया है   थोडी़ देर से ही सही   एक मौसम लौटकर आया है     जब देश के पहाड़     खनन जाँच से गुजर रहे हों   और जंगल ,   बादलों को अपनी ओर खिंचने में     असमर्थ हो रहे हों   ऐसे में     ठंढ का लौटना बडी़ बात है     मौसम अपनी रंगत में बचा रहे   तो बीजों में अँखुआने की उम्मीद बची रहेगी   और बचेगा एक रिश्ता     हल का जमीन के साथ   फूलों का तितलियों के बीच     नदियों का अपने किनारों के साथ   और कवि का अपनी कविता के साथ     लेकिन जब आप     मौसम के अनुकूलन में शामिल हों   तो कितनी देर टिकेगी/यह जाडे़ की धूप !   
हाथ की लकीरों में हमारा भविष्य है...
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      लेखिका      कमला वाजपेयी    (पुत्रवधू-  आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी)   205 अखिलालय 91 नेपियर टाउन    जबलपुर (म.प्र.)       हाथ की लकीरों में हमारा भविष्य है       जिंदगी एक पहेली के समान है    जीवन का सफर आसान नहीं है   जहन में हलचल मचाये रहती है    हाथ की लकीरों में हमारा भविष्य है    प्रभु सब की किस्मत पहले लिख देते हैं       जिंदगी एक पहेली के समान है    सब पर दया दृष्टि रखते हैं    यही हमारी किस्मत का खेल है    जिंदगी तो एक मकड़ी का जाल है    ताना बाना बुनते ही बीतती है        जिंदगी एक पहेली के समान है    किस्मत बनाये बनती है    अवगुणों से बिगड़ती जाती है    यही जीवन का सफर है    भविष्य तो इच्छा शक्ति है        जिंदगी एक पहेली के समान है    समुद्र भी घटता बढ़ता है    पूर्णिमा को लहर मारता है    कभी तुफान से संघर्ष करता है    कभी आराम से बहता है        जिंदगी एक पहेली के समान है    इसी तरह हमारी जिंदगी है    कभी खुशी कभी गम है    मैंने अपनी किस्मत को बदल...
जन्म हमारा गाँव
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      डॉ. हरेन्द्र सिंह असवाल    एसोशिएट प्रोफेसर    हिंदी विभाग, जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज      जन्म हमारा गाँव का। दिल्ली बन गया ठांव।  करोना के काल में, नहीं किसी को छाँव॥   गाँव जो छूटा छूट गया, सारा खेत खलियान।   झोंपड़ियों में आ बसे, छोड़ के खुले मकान॥    पगडंडियाँ अब कहाँ वहाँ, सड़क गई अब गाँव।   लोग वहाँ से निकल गये, खाली हो गये गाँव॥    जहाँ कहीं भी फ़सल है, गायों का गोठ्यार।   केले पीपल आम का, वह जीवन सदा बहार॥    आम पके हैं पेड़ पर, नीचे गहरी छांव।   खाट लगाये चौकसी, करे जमा के पाँव॥   गर्मी के इस मौसम में, बैठ पेड़ की छांव।   छाकल में पानी भरे, गेहूँ  बीनने जांय॥    कोयल कूक रही डाली पर, कहे पुकार पुकार।   कौआ चतुर सायाना, फिर भी धोखा खाय॥    
हिंदी कहानी....और शादी हो गयी
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     और शादी हो गयी   नूरूल इस्लाम       शोधार्थी   उर्दू विभाग , दिल्ली विश्वविद्यालय ,   नई दिल्ली- 110007               बात उस ज़माने की है जब इन्सानों के भी पंख हुआ करते थे। इन्सान भी जानवरों की तरह ख़ानाबदोश ज़िंदगी बसर करते थे। खाने की तलाश में इन्सान एक जंगल से दूसरे जंगल भटकते रहते थे। किसी जगह पर ज़्यादा दिनों तक ठहरने का सीधा संबंध उस जगह मिलने वाली गज़ा से था।             इन्हीं इन्सानों में दो ख़ास थे। एक का नाम वरा था दूसरे का नाम वीरू। दोनों बहुत ही ताक़तवर , बहादुर व हम दिल इन्सान थे। खाने की तलाश में इन दोनों को महारत हासिल थी। खाने के ऐतबार से अच्छी जगह के मिलते ही सभी लोगों को इकट्ठा कर मिल जुलकर खाने का ख़ूब आनन्द लेते थे। खाने की कमी महसूस होते ही सबसे पहले वह दोनों उस जगह को छोड़ते और एक नई दुनिया की खोज में निकल जाते। दरअसल यही उनकी दुनिया थी जिसमें इन्हें पेट भरने के सिवा कोई और कामन था। उनकी ज़िंदगी बहुत ही आज़ादी के साथ गुज़र रही थी।          ...
राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया...
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    अध्ययन एवं अनुसंधान पीठ की सार्थक पहल   ‘ स्वदेशी की राह पर सशक्त राष्ट्रनिर्माण ’                       दिनांक 15 जुलाई को "अध्ययन एवं अनुसंधान पीठ"  के द्वारा एक राष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसका विषय था   " राष्ट्र निर्माण और स्वदेशी:   समकालीन विमर्श" । इस राष्ट्रीय संगोष्ठी की मुख्य समन्वयक एवं संयोजिका दिल्ली विश्वविद्यालय की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. माला मिश्र थीं। वर्तमान आपदाकाल एवं समसामयिक परिस्थितियों में सशक्त एवं सुदृढ़ राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करना समय की सबसे बड़ी जरूरत है और इसी परिप्रेक्ष्य में इस संगोष्ठी में "स्वदेशी" को केंद्रित करते हुए विषय को चुनना बहुत सार्थक प्रयास रहा।                   इस संगोष्ठी  की  अध्यक्षता प्रोफेसर पी. एल. चतुर्वेदी (कुलाधिपति हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय) ने की।  विशेष अतिथियों के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर रामदेव भारद्वाज , महात्मा गांधी अंतर...
कविता... देखो क्या वक्त आ गया है.
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      दीपाली कुजूर   पीएच-डी. शोधार्थी ,   हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग ,    महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,  वर्धा         देखो क्या वक्त आ गया है...     देखो क्या वक्त आ गया है   आज दशा और दिशा सब बदल गयी है।   ऐसा वक्त आ गया है कि   खुले आसमान में ,    उड़ान भरना   अब मानो ,   मुश्किल सा हो गया है।     अब तो ,   ख्वाब सा लगे   हवाई-जहाजों में बेफ़िकर सफर करना ,   दुनिया में मानो   ऐसा भय बन गया है।     भय से अब तो   सब तितर-बितर हैं   लोगों को अब तो एक-दूसरे को छूने से भी डर है।   देखो क्या वक्त आ गया है।     समय मानो   कहीं थम सा गया है   मन में अब बस   यही सवाल बन गया है ,   कब-तक उबर पाएंगे हम इन हालात से   देखो क्या वक्त आ गया है।